नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल: कबीर जयंती पर अर्थ सहित पढ़िए उनके 20 दोहे

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कबीर के 20 दोहे

1.

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

अर्थ: – ज्ञान का महत्व धर्म से कही ज्यादा ऊपर है इसलिए किसी भी सज्जन के धर्म को किनारे रख कर उसके ज्ञान को महत्वा देना चाहिए। कबीर दस जी उदाहरण लेते हुए कहते है कि – जिस प्रकार मुसीबत में तलवार काम आता है न की उसको ढकने वाला म्यान, उसी प्रकार किसी विकट परिस्थिती में सज्जन का ज्ञान काम आता है, न की उसके जाती या धर्म काम आता है।

2.

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

अर्थ: – कबीर दस जी कहते है कि किसी भी कार्य को पूरा होने के लिए एक उचित समय सीमा की आवश्यकता होती है, उससे पहले कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए हमे अपने मन में धैर्य रखना चाहिए और अपने काम को पूरी निष्ठा से करते रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पे – यदि माली किसी पेड़ को सौ घड़ा पानी सींचने लगे तब भी उसे ऋतू आने पर ही फल मिलेगा। इसलिए हमे धीरज रखते हुए अपने कार्य को करते रहना चाहिए, समय आने पर फल जरूर मिलेगा।

3.

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,

कबहुँ उड़ी आँखीन पड़े, तो पिर घनेरि होय।

अर्थ: – कबीर जी कहते है कि हमारे पाँव के निचे जो छोटा सा तिनका दबा हुआ रहता है हमे उसकी भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि वही छोटा तिनका उड़ कर हमारे आखो में आ गया तो अत्यधिक पीड़ा का कारण बन जाता है। अथार्थ इस दुनिया में हर एक छोटे से छोटे चीज़ भी अगर सही जगह में पहुंच गया तो हमारे लिए काफी संकट पैदा कर सकता है। इसलिए हमे किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए चाहे वह छोटा हो या बड़ा।

 

4.

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।

पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाही जब छूट ।।

अर्थ: – कबीर जी कहते है कि जब तक तुम जिन्दा हो, ईश्वर का नाम लो उसकी पूजा करो नहीं तो मरने के बाद तुम्हे पछताना पड़ेगा।

5.

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।

पल में प्रलय होएगी, बहुरी करेगा कब ।।

अर्थ: – समय का महत्व समझते हुए कबीर जी कहते है कि जो कार्य तुम कल के लिए छोड़ रहे हो उसे आज करो और जो कार्य आज के लिए छोड़ रहे हो उसे अभी करो, कुछ ही वक़्त में तुम्हारा जीवन ख़त्म हो जाएगा तो फिर तुम इतने सरे काम कब करोगे। अथार्त हमे किसी भी काम को तुरंत करना चाहिए उसे बाद के लिए नहीं छोड़ना चाहिए।

6.

साईं इतना दीजिये, जा के कुटुम्ब समाए ।

मैं भी भुखा न रहूं, साधू ना भुखा जाय ।।

अर्थ: – संत कबीर जी कहते है कि हे ईश्वर मुझे इतना दो की मै अपने परिजनों का, अपने परिवार का गुजरा कर सकू। मैं भी भर पेट खाना खा सकू और आने वाले सज्जन को भी भर पेट खाना खिला सकू। अथार्त हमे बहुत अधिक धन की लालच नहीं करनी चाहिए, हमे इतने में ही संतोष कर लेने चाहिए जितने में हम अपने और अपने परिजनों को भर पेट खाना खिला सके।

7.

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय ।

जो सुख मे सुमीरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।

अर्थ: – जब हमे कोई दुःख होता है अर्थात् कोई परेशानी होती है या चोट लता है तब जाके हम सतर्क होते हैं और खुद का ख्याल रखते हैं। कबीर जी कहते है कि यदि हम सुख में, अच्छे समय में ही सचेत और सतर्क रहने लगे तो दुःख कभी आएगा ही नहीं। हमें सचेत होने के लिए बुरे वक़्त का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।

8.

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,

अती का भला न बरसना, अती कि भलि न धूप ।

अर्थ: – कबीर जी उदाहरण लेते हुए बोलते हैं कि जिस प्रकार जरुरत से ज्यादा बारिश भी हानिकारक होता है और जरुरत से ज्यादा धूप भी हानिकारक होती है – उसी प्रकार हम सबका न तो बहुत अधिक बोलना उचित रहता है और न ही बहुत अधिक चुप रहना ठीक रहता है। हम जो बोलते हैं वो बहुत अनमोल है इसलिए हमें सोच समझकर काम शब्दों में अपने बातों को बोलना चाहिए।

9.

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।

अर्थ: – कबीर दास जी कहते हैं कि जब मैं इस दुनिया में लोगों के अंदर बुराई ढूंढ़ने निकला तो कहीं भी मुझे बुरा व्यक्ति नहीं मिला, फिर जब मैंने अपने अंदर टटोल कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा व्यक्ति इस जग में और कोई नहीं है। हमें दूसरों के अंदर बुराई ढूंढ़ने से पहले खुद के अंदर झांककर देखना चाहिए और तब हमें पता चलेगा कि हमसे ज्यादा बुरा व्यक्ति इस संसार में और कोई नहीं है।

10.

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गही रहै, थोथी देई उड़ाय ।

अर्थ: – कबीर जी कहते हैं कि हमें ऐसे सज्जन कि आवश्कता है जिसका स्वभाव अनाज को साफ़ करने वाला सूप की तरह हो, जो अनाज को फटकते हुए सारी गंदगी हटा दे। यानी सज्जन को ऐसा होना चाहिए जिसे सही गलत का और अच्छे बुरे का फर्क करना आता हो , जो सबकी मदद करे और जो अच्छाई को पकड़कर बुराई को निकल दे।

11.

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।

अर्थ: – कबीर जी सच्चे ज्ञानी की परिभाषा देते हुए कहते हैं की इस दुनिया में न जाने कितने लोग आये और मोटी मोटी किताबें पढ़ कर चले गए पर कोई भी सच्चा ज्ञानी नहीं बन सका। सच्चा ज्ञानी वही है, जो प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ा हो – जो प्रेम का वास्तविक रूप पहचानता हो। इस जगत में बहुत से ऐसे लोग हैं जो बड़ी बड़ी किताबें पढ़ लेते हैं फिर भी वे लोग प्रेम का सही अर्थ नहीं समझ पाते हैं।

12.

पतिबरता मैली भली, गले कांच की पोत ।

सब सखियन मे यो दीपै, ज्यो रवि शीश की जोत ।।

अर्थ: – संत कबीर जी कहते है कि यदि कोई स्त्री पतिव्रता है – तो फिर चाहे उसके गले में सुहाग के नाम पर सिर्फ कांच की एक माला हो या वो तन से मैली भी है, फिर भी वो अपने सभी सखी सहेलियों में सूर्य के किरण सामान चमकती है। अथार्त जो स्त्री पति व्रता है उसे सुन्दर दिखने के लिए किसी भी गहने या सजावट की आवश्कता नहीं है।

13.

कबीर हमारा कोई नहीं, हम काहू के नाहिं ।

पारै पहुंचे नाव ज्यौ, मीलके बिछुरी जाह ।।

अर्थ: – संत कबीर जी इस दुनिया को एक नाव बताते हुए कहते हैं कि – इस संसार रूपी नाव में हमारा कोई नहीं है और न ही हम किसी के हैं। ज्यों ही नाव किनारे पर पहुंचेगी हम सब बिछुड़ जायेंगे। इस संसार रूपी नाव में हमारा अपना कोई भी नहीं है और न ही हम किसी के अपने हैं, कोई भी इस संसार में सदा एक साथ नहीं रह सकता एक न एक दिन सबको अलग अलग होना ही पड़ता है।

14.

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमान,
आपस में दोउ लड़ी मुए, मरम न कोउ जान।

अर्थ: – ईश्वर एक है – यह सीख देते हुए कबीर जी कहते है कि – है हिन्दू कहता है मेरा ईश्वर राम है और मुस्लिम कहता है मेरा ईश्वर अल्लाह है – इसी बात पर दोनों धर्म के लोग लड़ कर मर जाते है उसके बाद भी कोई सच नहीं जान पता है कि ईश्वर एक है।

15.

माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया ।

जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया ।।

अर्थ: – लोग पूजा पाठ में आडंबर और दिखावा करते हैं, मसलन सांप की पूजा करने के लिए वे माटी का सांप बनाते हैं। लेकिन वास्तव में जब वही सांप उसके घर चला आता है तो उसे लाठी से पीट-पीटकर मार दिया जाता है। कबीर जी पूजा की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए संदेश देते हैं कि दिखावे के पूजे से कोई लाभ नहीं। दिखावे के पूजे से मन को झूठी तसल्ली दी जा सकती है, ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती।

16.

मल मल धोए शरीर को, धोए न मन का मैल ।

नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल ।।

अर्थ: – कबीर जी कहते हैं कि लोग शरीर का मैल अच्छे से मल मल कर साफ़ करते हैं किन्तु मन का मैल कभी साफ़ नहीं करते। वे गंगा और गोमती जैसे नदी में नहाकर खुद को पवित्र मानते हैं परन्तु वे मूर्ख के मूर्ख ही रहते हैं।

जब तक कोई व्यक्ति अपने मन का मैल साफ़ नहीं करता तब तक वो कभी एक सज्जन नहीं बन सकता फिर चाहे वो कितना ही गंगा और गोमती जैसी पवित्र नदी में नहा ले, वो मूर्ख का मूर्ख ही रहेगा।

17.

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए।

औरन को शीतल करे , आपहु शीतल होए ।।

अर्थ: – कबीर जी हमारे मुख से निकलने वाली बातों को अत्यधिक महत्व देते हुए कहते हैं कि हमें ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जिसे सुन कर दूसरों को भी प्रसन्नता हो और खुद को भी खुशी महसूस हो। हमें ऐसी बातें करनी चहिए जिससे किसी को बुरा न लगे और उनके मन को ठेस न पहुंचे। मीठे वचन औषधि के समान है। तलवार से लगे चोट देर – सवेर भर जाता है किन्तु कटु वचन बोलने से हुआ घाव कभी नहीं भरता। मीठे वचन बोलने से बिगड़े काम भी बन जाते हैं।

18.

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय,

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

अर्थ: – जिस प्रकार हम अपने आंगन में छाया करने के लिए पेड़ लगाते हैं उसी प्रकार हमें उन लोगो को अपने सबसे नजीक रखना चाहिए जो लोग हमारे बुराई (निंदा) करते हैं। क्योंकि वे लोग बिना साबुन और पानी के, हमसे कुछ भी लिए बगैर हमारी कमियों को चुन चुन कर निकालते हैं ताकि हम उन सारी कमियों को दूर कर सकें।

19.

कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।

दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥

अर्थ: – कबीर जी कहते है कि हमारा शरीर लाख (कीमती वस्तु या पत्थर ) से बने एक मंदिर के समान है, जिसको हम सारा जीवन हीरे और लाली जैसे कीमती वस्तुओं से सजाने में लगे रहते हैं। किन्तु हम ये भूल जाते हैं कि हमारा जीवन सिर्फ चार दिन का खिलौना, उसके बाद यह शरीर नष्ट हो जाएगा।

20.

एकही बार परखिये, ना वा बारम्बार ।

बालू तो हू किरकिरी, जो छानै सौ बार॥

अर्थ: – कबीर दास जी कहते हैं कि किसी व्यक्ति के स्वभाव को एक ही बार में परख लिया जाता है। जिस प्रकार बालू को सौ बार भी छानने से उसकी किरकिरी ( अत्यधिक छोटा कण ) मिल ही जाता है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति को बार बार परखने से उसका स्वभाव नहीं बदल जाता। इसलिए संत कबीर जी कहते हैं किसी के स्वभाव को एक ही बार में परख लेना चाहिए। उससे बार बार धोखा खाने की आवश्यकता नहीं है।

(हिंदी साहित्य ब्लॉग से साभार)


अब्बा- शबाना आज़मी की यह कहानी हर बेटी और पिता को सुनना चाहिए


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