By जंगल कथा
बालू या रेत का एक-एक कण न जाने कितने सालों का इतिहास अपने आप में समेटे रहता है। पता नहीं कहां से, किन चट्टानों से टूटकर वो बना होगा। और न जाने कहां-कहां से बहता हुआ वो नदी या समुद्र के किनारे किसी एक जगह पर जाकर सेटल हुआ होगा।
उसके जीवन ने न जाने कितने सदियों की यात्राएं की होंगी। तब जाकर उसे यह रूप मिला होगा। लेकिन, क्या कभी सोचा जा सकता है कि अब उसकी यह यात्राएं समाप्त होने जा रही हैं। अब आगे का इतिहास देखने के लिए वह जिंदा नहीं बचेगा।
बालू माफिया, रेत माफिया और खनन माफिया की खबरें हम अक्सर अखबारों के किसी कोने-कतरे में पढ़ते रहते हैं। तमाम जगहों पर रेत या खनन माफिया बेहद हमलावर तरीके से काम करते हैं। अव्वल तो ऊपर से नीचे तक इसका घूसखोरी और मुनाफे का एक सिस्टम होता है।
बाकी अगर कोई अधिकारी इसके आड़े आने की कोशिश करता है तो वे उस पर अपना ट्रैक्टर या ट्रक चढ़ाने से भी वे बाज नहीं आते। बालू या खनन की जगहों पर कब्जे के लिए, पट्टे के लिए तमाम जगहों पर हर साल खून बहता है। स्थानीय स्तर की माफियागिरी का यह एक बड़ा जरिया है।
लेकिन, क्या होगा जब बालू खतम हो जाएगा। नदियों के किनारे सूने पड़ जाएंगे। जी हां, यह सिर्फ कल्पना नहीं है। विशेषज्ञों के मुताबिक पानी के बाद बालू या रेत ऐसा दूसरा प्राकृतिक संसाधन है, जिसका उपभोग सबसे ज्यादा किया जाता है।
यूनाइटेड नेशन इनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में बालू और बजरी की सालाना डिमांड 40 बिलियन टन से लेकर 50 बिलियन टन तक है। इस भयंकर मांग के चलते दुनिया भर में ही बालू और बजरी समाप्त होने का खतरा पैदा होता जा रहा है। जबकि, इसने दुनिया भर में तमाम किस्म के माफियागिरी और घूसखोरी के एक सिस्टम को जन्म दिया है।
रिश्वत खोरी के इस सिस्टम को आप ऐसे समझिए कि सिंगापुर ने वर्ष 2007 से वर्ष 2016 के बीच कंबोडिया से 80.2 मिलियन टन बालू आयात किया। जबकि, कंबोडिया के आधिकारिक व्यापार रजिस्टर में सिर्फ 2.77 मिलियन टन बालू ही निर्यात किए जाने की बात लिखी है।
यानी जितना बालू आधिकारिक तौर पर निर्यात किया गया। उसका कई गुना ज्यादा निर्यात अवैध तरीके से किया गया। माना जाता है कि दुनिया के 70 देशों में लगभग ऐसा ही सिस्टम काम कर रहा है। खनन का पट्टा आधिकारिक तौर पर होता है, उससे कई गुना ज्यादा खनन वास्तविक तौर पर होता है।
अगर आपको याद हो तो हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा था कि अरावली के जो पहाड़ गायब हो गए हैं, क्या उन्हें हनुमानजी उठा ले गए हैं।
बालू हमारे ईकोसिस्टम का बेहद जरूरी हिस्सा है। यहां पर पूरा एक जीवन पनपता है। न जाने कितने पक्षी यहां पर अंडे देते हैं, कीट-पतंगों का घर है और जलजीवन के बीच वे मध्यस्थ की तरह काम करते हैं।
लेकिन, दुनिया भर में हो रहे तमाम निर्माण कार्यों के लिए बालू खोदा जा रहा है। उन्हें शहरों में पहुंचाया जा रहा है। उनसे इमारतें बनाई जा रही हैं। हैरानी की बात यह है कि हर साल लाखों टन बालू इसमें खप जाता है। जबकि, हर साल ही लाखों टन कंस्ट्रक्शन एंड डिमोलेशन वेस्ट निकलता है।
नए भवन बनाए जाते हैं। पुराने को तोड़ दिया जाता है। फिर वो रेत और सीमेंट बेकार हो जाता है। यह भवन सामग्री का मलबा नदियों और नालों में चोरी-छिपे फेंक दिया जाता है। जहां पर वो नदियों और नालों के रास्ते को चोक कर देता है और बाढ़ जैसी तमाम मुसीबतें पैदा करते है।
हर साल जितना बालू-बजरी इस्तेमाल किया जा रहा है। उससे यह सवाल पैदा होना लाजिमी ही है कि आखिर जब यह खतम हो जाएगा तब क्या होगा।