द लीडर हिंदी : प्रोफ़ेसर ज़ाहिद हुसैन वसीम बरेलवी, पहचान अंतरराष्ट्रीय शायर लेकिन वो जितना अच्छा पढ़ते हैं, उससे कहीं ज़्यादा अच्छे वक्ता हैं.
मिर्ज़ा ग़ालिब ने तो अपने बारे में कह दिया था- कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और पर वसीम साहब के बारे यह लफ़्ज़ अकसर और बेशतर बड़ी शख़्सियत के मुंह से सुनने को मिल जाता है.
जब कभी उन्हें सुनने का मौक़ा मिले तो ख़्वाहिशें मचल उठती हैं कि वो बोलते चले जाएं और हम सुनते रहें. शायरी बेमिसाल है तो गुफ़्तगू कमाल की है. उनके शेर सदन से लेकर सड़कों तक नेताओं की ज़ुबां पर रौनक़ बनते रहते हैं.
उनके एक शेर के मुरीद तो बालीवुड के बादशाह शाहरुख़ ख़ान भी हो गए हैं. अपनी नई फ़िल्म जवान के लिए-उसूलों पर जहां आंच आए टकराना ज़रूरी है, यह शेर लेने के लिए उन्होंने वसीम साहब से 15 मिनट से ज़्यादा बात की.
वो भी वसीम साहब की गुफ़्तगू के क़ायल हो गए. मिलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की. पहले पूछा कि कहां रह रहे हैं और फिर यह गुज़ारिश की कि जब भी मुंबई आएं, मुझसे मिले बग़ैर नहीं जाएंगे.
वसीम साहब ने उनके इस इसरार को क़ुबूल भी कर लिया है. वसीम बरेलवी मुंबई जाएंगे तो किंग ख़ान से मिलेंगे. बहरहाल लफ़्ज़ों के शहंशाह और भारतीय सिनेमा के बाज़ीगर में फोन पर लंबी गुफ़्तगू का चर्चा मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक ख़ूब हो रहा है.
अख़बारों से लेकर चैनलों तक शाहरुख़ ख़ान के वसीम साहब को फोन करने की बात फोकस में है लेकिन वसीम साहब के नज़दीक यह बात अहम नहीं है.
वो कहते हैं कि मैं ख़ान साहब का इसलिए क़ायल हो गया हूं कि उन्होंने लफ़्ज़ों को अहमियत दी. उस तरह जैसे साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, इंदीवर के ज़माने में दी जाती रही है.
मेरे शेर को बदलने से पहले इजाज़त मांगी, इस पर भी राज़ी हो गए कि बदलाव से पहले शेर को मूल में ही पढ़ेंगे और ऐसा किया भी. पहले असल शेर पढ़ा-उसूलों पर जहां आंच आए टकराना ज़रूरी है, जो ज़िदा हो तो फिर ज़िदा नज़र आना ज़रूरी है.
उसके बाद दूसरे मिसरे को बदला-बंदा ज़िदा है तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है. सितंबर में रिलीज़ होने वाली जवान फ़िल्म का इंतज़ार बरेली वासियों को अब शिद्दत से रहेगा, क्योंकि बरेली के झुमके के बाद अब वसीम बरेलवी की ग़ज़ल का शेर बड़े पर्दे पर गू़जने जा रहा है.