द लीडर हिंदी : उनकी बेबसी बयां करने के लिए लफ़्ज़ कम पड़ जाएंगे. खाने को न घर में दाने, तन ढकने के लिए गिनती के कपड़े. सिर छुपाने के लिए छोटी से झोंपड़ी और वो भी बरसात की नज़र हो गई. मुफ़लिसी के इस आलम में तनाव और उससे उपजी कलह ने दो ज़िंदगियां छीन लीं. पहले बेटे और फिर मां ने कीटनाशक पी लिया. उन्हें अस्पताल ले जाया गया. डॉक्टरों ने कोशिश की लेकिन दोनों के ही जिस्म से सांसों का रिश्ता टूट गया. ग़रीबी किसे कहते हैं, मां-बटे की मौत ने उसका ज़िंदा सुबूत सामने ला दिया. उनके शवों को ढकने के लिए कपड़ा तक मयस्सर नहीं था. तब प्रधान सुरभीक सिंह ने चादर मंगाकर दी. बच्चे और पत्नी भूखी थीं, गांव में लोगों ने उन्हें खाना खिलाया.
ग़रीबी मिटाने के ज़ोरदार दावों के बीच यूपी के ज़िला बरेली में क्योलड़िया थाने के गांव धनौर जागीर की यह घटना झकझोरती और गिरेबां झांकने को मजबूर करती है कि क्या हम अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को निभा रहे हैं या फिर समाजसेवा का दम ढकोसला भर है. क्यों सरकारी योजनाओं का लाभ सबसे निचले पायदान पर खड़े वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुंचा. तब जबकि इस बात की गूंज राजनीतिक मंचों से अकसर और बेशतर सुनाई देती रहती है. ख़ैर जब-जब सोमपाल (42 साल) और उनकी मां छंगो देवी की मौत के वजूद को हिला देने वाले मामले सामने आएंगे, सोचने पर मजबूर करेंगे कि क्या अगर पड़ोस, मुहल्ले, बस्ती, गांव में कोई भूखा है तो हमारा भरपेट खाना जायज़ है. सोमपाल मज़दूरी करके मां, पत्नी और तीन बच्चों का पेट पालते थे.
बेटे मुनीष की यूनिफॉर्म के लिए 1200 रुपये खाते में आए थे, मोटर साइकिल की किस्त में कट गए. पत्नी को पता लगा तो इस बात को लेकर घर में कहासुनी हुई और उसका नतीजा दिल दहला देने वाली घटना के तौर पर सामने आया. पत्नी जगदेई सोमपाल और सास छंगो देवी की मौत पर पशेमा हैं. वो घर बारिश में टूटने के बाद पड़ोसी की बैठक में शरण लिए हैं. सोमपाल पन्नी डालकर मां के साथ टूटे हुए घर में ही रह रहे थे. जगदेई सरकारी आवास की मांग करने नवाबगंज तहसील भी गई थीं लेकिन कमज़ोरी के सबब बेहोश होकर गिर गईं. लोगों ने जैसे-तैसे उन्हें होश में लाया तो वो गांव लौट आईं. अब उनके पास पति और सास का अंतम संस्कार करने तक को पैसा नहीं है.