राजनेताओं को नहीं मालूम संकट का हल, उन्हें देश की हर समस्‍या के लिए मुसलमानों को बलि का बकरा बनाना है : बजट पर जस्टिस काटजू

भारतीय वित्त मंत्री ने संसद में जो बजट पेश किया है, वह मेरे अनुसार निराशाजनक, दिशाहीन और अवास्तविक है. हालांकि यह दावा किया गया कि यह भारत को आत्मनिर्भर बना देगा. यह स्वास्थ सेवा, राजमार्गों और महानगरों के निर्माण (विशेषकर उन राज्यों में जहां जल्द ही चुनाव होंगे), और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के विनिवेश पर जोर देता है. लेकिन भारतीय लोगों के लिए भोजन और नौकरियों के बिना ये कदम क्या करेंगे?

वर्तमान में चल रहे किसानों के आंदोलन से हमारी अर्थव्यवस्था के कृषि क्षेत्र में भयानक संकट का पता चलता है (3.5-4 लाख किसानों ने पिछले 25 वर्षों में आत्महत्या की है क्योंकि वे कर्ज में थे), क्योंकि किसानों को उनकी उपज के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक नहीं मिल रहा है.

विश्व के लगभग सभी देशों में कृषि पर सब्सिडी ( subsidy) दी जाती है, यहां तक कि सबसे उन्नत देश, संयुक्त राज्य अमेरिका में भी. एक मोटर कार, एक टीवी सेट या अन्य औद्योगिक उत्पादों के बिना जीवित रहा जा सकता है. लेकिन भोजन, हवा और पानी की तरह, जीवन के लिए बिल्कुल आवश्यक है. अगर कारों, टीवी सेट आदि का उत्पादन नहीं किया जाता है तो भी लोग जीवित रह सकते हैं. लेकिन कोई भी भोजन किए बिना नहीं रह सकता.


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इसलिए कृषि अन्य उद्योगों से बहुत अलग है. कृषि करना आवश्यक है, और चूंकि आधुनिक कृषि को सब्सिडी के बिना नहीं किया जा सकता है. राज्य को निश्चित करना चाहिए कि किसानों को उनकी उपज के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक मिलता है, क्योंकि ज़ाहिर है कि घाटे में किसान खेती नहीं करेगा. इसलिए, MSP(न्यूनतम समर्थन मूल्य) सभी किसानों को दिया जाना चाहिए (वर्तमान में वह केवल 6% को दिया जाता है )

MSP उन 3 कानूनों द्वारा नहीं दिया गया है, जिनके खिलाफ किसान वर्तमान में आंदोलन कर रहे हैं, न ही आज के बजट में ( स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट के बावजूद, जिसने किसानों को उनकी लागत से 50% ऊपर देने की सिफारिश की ) है. I

हाल के महीनों में, भारतीय अर्थव्यवस्था में भारी मंदी आई है, जिससे निर्माण और बिक्री दोनों में तेज गिरावट आई है. जैसे ऑटो सेक्टर, रियल एस्टेट सेक्टर में I बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर तक पहुंचने के कारण बड़े पैमाने पर छंटनी हुई है. भारत में हर दूसरा बच्चा कुपोषित है (ग्लोबल हंगर इंडेक्स देखें) और हर दूसरी महिला एनीमिक है. कोविड ने मुसीबतों में इजाफा किया है.


महात्मा गांधी किसानों को देश की ताकत बनाना चाहते थे और हमनें उन्हें बोझ समझ ल‍िया


 

इसी समय, भोजन और ईंधन की कीमतें बढ़ गई हैं (बजट में डीजल की कीमत में 4% की बढ़ोतरी और पेट्रोल में 2.5% की बढ़ोतरी से बोझ और बढ़ जाएगा). भविष्य और भी निराशाजनक दिखता है. राजनीतिज्ञों को नहीं मालूम है कि इस संकट को हल करने का क्या तरीका है? वे केवल ध्यान भटकाने के लिए कोई न कोई नाटक का सहारा ले सकते हैं.

उदाहरण स्वरूप राम मंदिर का निर्माण, गौरक्षा, योग दिवस, स्वच्छ भारत अभियान, अनुच्छेद 370 को समाप्त करना, नागरिकता संशोधन अधिनियम, और मुसलमानों को देश की सभी बीमारियों के लिए बलि का बकरा बनाना (जैसे कि नाज़ी जर्मनी ने यहूदियों के साथ किया ) था. I

सवाल उठता है कि तब, इस आर्थिक संकट से निकलने का असली रास्ता क्या है?

जिस तरह से न केवल किसानों को एमएसपी दिया जाना चाहिए. देश का तेजी से औद्योगिकीकरण भी होना चाहिए, क्योंकि यही बेरोजगारी को खत्म करने और लोगों के कल्याण के लिए आवश्यक धन का सृजन करने के लिए एकमात्र उपाय है. इससे करोड़ों नौकरियां भी पैदा होंगी. I

तेजी से औद्योगिकीकरण के लिए एक बुनियादी बाधा है. वो ये कि जबकि उत्पादन बढ़ाने में कोई कठिनाई नहीं है, उत्पादों को बेचा नहीं जा सकता, क्योंकि हमारे लोग गरीब हैं और इसलिए उनके पास क्रय शक्ति बहुत कम है.

भारत आज 1947 का भारत नहीं है. उस समय हमारे पास बहुत कम उद्योग और बहुत कम इंजीनियर थे. क्योंकि हमारे ब्रिटिश शासकों की नीति मोटे तौर पर हमें सामंती और पिछड़ा रखना था. आजादी के बाद, एक सीमित औद्योगीकरण हुआ. आज हमारे पास हजारों उज्ज्वल इंजीनियर, तकनीशियन और वैज्ञानिक हैं. हमारे पास अपार प्राकृतिक संसाधन हैं. इनसे हम आसानी से तेजी से औद्योगिक उत्पादन बढ़ा सकते हैं. समस्या यह नहीं है कि उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए बल्कि भारतीय जनता की क्रय शक्ति कैसे बढ़ाई जाए.


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भारत में हमारे पास बहुत सारे अर्थशास्त्री हैं, जिनमें से कई हार्वर्ड, येल या लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पीएचडी हैं. लेकिन किसी के पास कोई धारणा नहीं है कि यह कैसे किया जा सकता है. इसलिए मैं अपने विचार प्रस्तुत करना चाहूंगा.

1914 में अमरीकी उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने अपने कर्मचारियों की मजदूरी 2.25 डाॅलर से 5 डॉलर प्रति दिन बढ़ा दी. वह निश्चित रूप से अपने कार्यबल को स्थिर करने के लिए किया गया था. लेकिन इसने अमेरिकी जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाया. क्योंकि अन्य अमेरिकी निर्माताओं को भी ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ा. यह संभावना नहीं है कि भारतीय उद्योगपति इसी तरह करेंगे.

सोवियत संघ में 1928 में प्रथम पंचवर्षीय योजना को अपनाने के बाद औद्योगिकीकरण तेज़ी से शुरू हुआ. सोवियत नेताओं द्वारा अपनाई गई कार्यप्रणाली मोटे तौर पर यह थी: सरकार ने सभी वस्तुओं की कीमतें तय कीं और हर दो साल में या तो उन्हें 5-10 प्रतिशत तक कम किया गया, और कभी-कभी मजदूरी में 5-10 प्रतिशत की वृद्धि भी की गई. इसके कारण अब मज़दूर अधिक सामान खरीद सकता था, क्योंकि कीमतें नियमित रूप से कम हो गई थीं. इस तरह, रूसी जनता की क्रय शक्ति राज्य की कार्रवाई से बढ़ गई थी, और इस प्रकार घरेलू बाजार में लगातार विस्तार हुआ.


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इसके साथ ही, उत्पादन में भी वृद्धि हुई और बढ़े हुए उत्पादन को बेचा जा सकता था. क्योंकि लोगों के पास क्रय शक्ति अधिक थी. यह प्रक्रिया 1928 के बाद तेजी से आगे बढ़ी, जिसके परिणामस्वरूप सोवियत अर्थव्यवस्था का तेजी से विस्तार हुआ और बेरोजगारी को मिटाते हुए लाखों नौकरियों का निर्माण हुआ.

यह 1929 की वॉल स्ट्रीट मंदी के समय हुआ, जिसके बाद अमेरिका और अधिकांश यूरोप में ग्रेट डिप्रेशन ( Great Depressiin) था. जिसके कारण हजारों कारखाने बंद, और करोड़ों मज़दूर बेरोज़गार हो गए.

मैं, यह नहीं कह रहा हूं कि हमें भारत में सोवियत मॉडल को अपनाना चाहिए. चाहें, हम इसे निजी उद्यम या राज्य कार्रवाई द्वारा करें, हमें भारतीय जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाना होगा.

(जस्टिस मार्केंडय काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष व सुप्रीमकोर्ट के जज रहे हैं. बजट पर ये लेख उनकी फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हुआ है. साभार, जस्टिस काटजू.)

Ateeq Khan

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