राजीव गांधी हत्याकांड – विस्तार : हत्या के 30 साल बाद भी शायद इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं दिया जा सकता. 26 दोषियों को फांसी की सजा से शुरू हुआ यह न्यायिक मामला अब सभी दोषियों की रिहाई का राजनीतिक मामला बन चुका है. पिछले 30 साल के सफर में कई बार इस मामले में न्याय की परिभाषाएं बदली, कई बार फैसले आए, कई बार अपील हुई और कई बार अंतिम दिखते फैसले भी आए. लेकिन राजनीतिक दांव-पेचों ने उन्हें अंतिम नहीं रहने दिया. यह मामला आज भी अपना अंतिम न्याय लिखे जाने का इंतजार कर रहा है.
आज न्याय की मांग पीड़ितों के लिए नहीं बल्कि दोषियों के लिए होने लगी है जबकि यह मामला असल में उन 18 लोगों को न्याय दिलाने का था जिनकी इन दोषियों ने हत्या कर दी थी. लोक स्मृति में धुंधली हो चुकी इस हत्याकांड से जुड़ी बातें और घटनाक्रम मिलकर एक दिलचस्प सिलसिला बनाते हैं. न्यायालय के फैसलों, जांच आयोगों, समितियों की रिपोर्ट, हजारों पन्नों के दस्तावेजों, संबंधित लोगों के बयानों और साक्षात्कारों के आधार पर इसे समझते हैं.
राजीव गांधी हत्याकांड के पूरे मामले को समझने के लिए जरूरी है कि इसकी शुरुआत आजादी से की जाए. भारत की नहीं, श्रीलंका की आजादी से. श्रीलंका 1948 में आजाद हुआ था. तब इसे सीलोन कहा जाता था. आजादी से पहले हजारों तमिल लोगों को श्रीलंका के चाय बागानों में मजदूरी के लिए लाया गया था. कुछ तमिल वहां पहले से थे जिन्हें श्रीलंकन-तमिल या जाफना-तमिल कहते थे.
श्रीलंका में बहुसंख्यक आबादी बौद्ध धर्म को मानने वाले सिंहला लोगों की थी. तमिल भाषियों को लगातार उनकी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था. आजादी के बाद तो भारतीय तमिलों से वोट देने का अधिकार भी छीन लिया गया जबकि श्रीलंका की लगभग 23 प्रतिशत आबादी तमिलों की थी. समय के साथ स्थितियां और खराब हुई. 1956 में श्रीलंका सरकार ने घोषणा कर दी कि देश की एक मात्र आधिकारिक भाषा सिंहला होगी.
सरकार के इस फैसले से तमिल भाषी लोगों को सरकारी नौकरी मिलना भी लगभग असंभव हो गया. 1972 में बने श्रीलंका के संविधान में बौद्ध धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित कर दिया गया. साथ ही सिंहला लोगों को बहुसंख्यक होने के बावजूद भी हर जगह वरीयता और आरक्षण दिया जाने लगा. लिहाज़ा धीरे-धीरे तमिल लोग नौकरियों से लेकर शिक्षा तक, हर क्षेत्र में हाशिये पर धकेल दिए गए.
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इस भेद-भाव का नतीजा यह हुआ कि अंततः तमिलों ने हथियार उठा लिए. उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में तमिलों के कई छोटे-छोटे संगठन बनने शुरू हुए. एक तमिल युवा वेलुपिल्लई प्रभाकरन ने भी अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘तमिल न्यू टाइगर्स’ नाम का एक संगठन बनाया. उस वक्त प्रभाकरन सिर्फ 18 साल का था. धीरे-धीरे उसका संगठन मजबूत होने लगा. 1976 में प्रभाकरन ने इसका नाम बदल कर ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम’ कर दिया जो लिट्टे नाम से चर्चित हुआ.
1980 का दशक आते-आते लिट्टे सबसे मजबूत, अनुशासित और सबसे बड़ा तमिल आतंकवादी संगठन बन गया. सभी छोटे संगठनों को लिट्टे ने या तो अपने साथ शामिल कर लिया या खत्म कर दिया. श्रीलंका में भारत के उच्चयुक्त रहे एनएन झा एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘लिट्टे ने उन सभी तमिल नेताओं को भी समाप्त कर दिया जो बातचीत में विश्वास रखते थे. प्रभाकरन तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन गया था.’
लिट्टे जितना मजबूत गुरिल्ला लड़ाई में था उतना ही मजबूत उसका संचार तंत्र भी था. पत्रकार श्याम टेकवानी के अनुसार लिट्टे का लंदन में मीडिया हेडक्वाटर था. लिट्टे द्वारा हर खबर यहां पहुँचाई जाती थी और मुख्यालय इन ख़बरों को प्रेस विज्ञप्ति के रूप में सभी अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और प्रकाशकों को भेज देता था. इस कारण लिट्टे जल्द ही दुनिया भर में मशहूर हो गया.
श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे भेदभाव के कारण तमिलनाडु के लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते थे. इस कारण भारत पर तमिलों की मदद करने का दबाव था. प्रभाकरन ने भारत से मदद मांगी. भारत इसके लिए तैयार हो गया. तमिलनाडु और श्रीलंका में तमिल छापामारों को भारत सरकार द्वारा प्रशिक्षण दिया जाने लगा. ट्रेनिंग के साथ ही हथियार, बम, पेट्रोल, वायरलेस, दवाइयां, कपड़े सब कुछ भारत द्वारा लिट्टे को दिया जाने लगा.
लिट्टे को दुनिया भर के तमिलों से भी मदद मिलने लगी थी. प्रभाकरन लगातार मजबूत हो रहा था. 1983 में उसने श्रीलंकाई सेना के खिलाफ पहला बड़ा कदम उठाया और उनके 13 सैनिकों की हत्या कर दी. यहां से श्रीलंका में नरसंहारों और खूनी संघर्ष का सबसे वीभत्स दौर शुरू हो गया. पूरे श्रीलंका में तमिल विरोधी दंगे भड़क गए.
लेखक एमआर नारायणस्वामी इन दंगों के बारे में कहते हैं, ‘जुलाई 1983 में श्रीलंका में जब तमिलों को मारा जा रहा था तो वहां की सरकार इसमें पूरी तरह से मिली हुई थी. उग्रवादियों के हाथ में वोटर लिस्ट थी और वे तमिलों को घर-घर जाकर मार रहे थे. सेना की गाड़ियों में उग्रवादी घूम रहे थे और पुलिस सब कुछ देख रही थी.’ दंगों के इस दौर को ‘ब्लैक जुलाई’ कहा गया.
श्रीलंका में गृह युद्ध की शुरुआत ही चुकी थी. हजारों की संख्या में तमिल शरणार्थी भारत आने लगे. अलग तमिल राष्ट्र- ‘ईलम’ की भी मांग तेज हो गई. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा के शब्दों में, ‘ब्लैक जुलाई से पहले ज्यादा लोग अलग राष्ट्र की मांग से सहमत नहीं थे. लेकिन इसके बाद तो तमिलों के मन में यह बात बैठ गई कि अलग हुए बिना न्याय नहीं हो सकता.’ लिट्टे यही चाहता था.
ब्लैक जुलाई के बाद से लिट्टे और श्रीलंकाई सेना के बीच लगातार मुठभेड़ होती रही. दोनों तरफ के सैकड़ों लोग हर रोज मारे गए. भारत अब भी लिट्टे की पूरी मदद कर रहा था. इधर तमिलनाडु में भी लिट्टे की सक्रियता बढ़ती जा रही थी और राज्य सरकार न सिर्फ उसे नजरंदाज कर रही थी बल्कि उसका समर्थन भी कर रही थी.
नवंबर 1986 में तमिलनाडु पुलिस ने कुछ ईलम संगठनों पर छापा मारकर कई हथियार, वायरलेस और अन्य अवैध समान बरामद किए. इसके विरोध में प्रभाकरन मद्रास में भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसने हथियार तो नहीं लेकिन अपने वायरलेस और संचार साधन वापस करने की मांग की. मीडिया ने भी इस मामले को खूब हवा दी. अंततः सरकार ने उसे जूस पिलाते हुए जब्त समान वापस कर दिया. इसके बाद तो तमिलनाडु में पहले से ही प्रसिद्ध प्रभाकरन की तमिलों में भगवान सरीखी छवि बन गई.
उधर, श्रीलंका में गृह युद्ध जारी था और इसे रोकने के लिए वो भारत से मदद चाहता था. 1987 में यह तय किया गया कि भारत और श्रीलंका के बीच एक शांति समझौता किया जाएगा. नटवर सिंह उस वक्त विदेश राज्य मंत्री थे. वे बताते हैं, ‘मैं और पी चिदंबरम साहब प्रभाकरन से मिले. हमने उन्हें समझाने की बहुत कोशिशें की लेकिन वे ईलम की मांग पर कोई समझौता करने तो तैयार नहीं थे. हमने उन्हें कहा कि ईलम का बनना मुमकिन नहीं है, इसे भूल जाओ. उन्होंने कहा कि मैं ईलम को नहीं भूल सकता.’
राजीव गांधी की भूमिका
28 जुलाई, 1987 को प्रभाकरन को राजीव गांधी से मिलने बुलाया गया. मुलाकात अच्छी रही और इसके तुरंत बाद प्रभाकर ने प्रेस से कहा, ‘प्रधानमंत्री तमिलों की समस्या समझते हैं और इस दिशा में काम कर रहे हैं. हम प्रधानमंत्री के इस रुख से संतुष्ट हैं.’ अगले ही दिन राजीव गांधी श्रीलंका पहुंचे और राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के साथ शांति समझौते पर दस्तखत कर दिए.
भारत और श्रीलंका के बीच हुआ यह समझौता कितना घातक होने वाला था इसके संकेत जल्द ही मिलने लगे. समझौते पर किए गए राजीव गांधी के दस्तखत की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उन पर जानलेवा हमला हो गया. यह हमला श्रीलंका में ही हुआ और हजारों लोगों की मौजूदगी में हुआ. समझौते के अगले ही दिन राजीव गांधी को श्रीलंका सैन्य सलामी दी जा रही थी.
राष्ट्रपति जयवर्धने के साथ राजीव गांधी सलामी ले रहे थे कि तभी सबसे आगे पंक्ति में खड़े एक श्रीलंकाई सैनिक ने उन पर बंदूक के बट से हमला कर दिया. खुद को संभालते हुए राजीव गांधी नीचे झुक गए जिस कारण उनके सिर पर चोट नहीं आई. बंदूक का यह वार उनकी गर्दन और कंधे पर जाकर लगा. सारे देश ने इस घटना को दूरदर्शन के माध्यम से देखा. इस हमले के कुछ साल बाद सोनिया गांधी ने कहा था कि ‘उस हमले के बाद राजीव लंबे समय तक न तो अपना कंधा पूरी तरह से उठा पाते थे और न ही उस करवट सो पाते थे.’
समझौते के दिन प्रभाकरन दिल्ली में था. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा का मानना है कि ‘प्रभाकरन कभी भी इस समझौते के पक्ष में नहीं था. लेकिन उस पर भारत का दबाव था इसलिए वो खुलकर इसका विरोध भी नहीं कर सका.’ समझौते के मुताबिक़ भारत से एक विशेष सैन्य दल श्रीलंका भेजा गया. इसका नाम था ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ यानी IPKF. समझौते वाले दिन ही IPKF को श्रीलंका रवाना कर दिया गया.
इसका काम था लिट्टे से आत्मसमर्पण करवाना. प्रभाकरन ने IPKF को लिख कर दिया कि वह आत्मसमर्पण के लिए तैयार है. IPKF के कमांडर रहे दीपेंदर सिंह ने अपनी किताब में लिखा है, ‘अन्य आतंकी संगठनों के मुकाबले लिट्टे बड़े ही सुनियोजित तरीके से आत्मसमर्पण कर रहा था. वे हमें समय बताते थे और ठीक समय पर उनके ट्रक हथियार लेकर पहुंच जाते थे.’
सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन तीन हफ्ते बाद लिट्टे ने अचानक हथियारों का समर्पण बंद कर दिया. प्रभाकरन ने IPKF के अधिकारियों को बताया कि भारतीय खुफिया विभाग लिट्टे के विरोधी संगठनों को हथियार दे रहे हैं लिहाज़ा लिट्टे अब समर्पण नहीं करेगा.
प्रभाकरन ने जब हथियार डालने से इनकार कर दिया तो श्रीलंका में मौजूद भारतीय अधिकारियों की एक बैठक बुलाई गई. इस बैठक में प्रभाकरन को भी बातचीत के लिए बुलाया गया था. जेएन दीक्षित उस वक्त भारत के उच्चायुक्त थे और यह बैठक उन्हीं की अध्यक्षता में होनी थी. IPKF के मेजर जनरल रहे हरकीरत सिंह एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘इस मीटिंग से एक रात पहले मुझे उच्चायुक्त दीक्षित साहब का फोन आया था. उन्होंने मुझे कहा कि जनरल, कल जब प्रभाकरन मीटिंग में आए तो आप उसे गोली मार देना. मैंने जनरल दीपेंदर सिंह से इस बारे में बात की और फिर दीक्षित साहब को जवाब दिया कि हम फौजी हैं, हम कभी भी पीठ पर गोली नहीं मारते.’
यह मीटिंग हुई और प्रभाकरन इसमें शामिल भी हुआ. लेकिन उसकी भारत से उम्मीदें अब टूटने लगी थी. तमिल लोगों को जिस तरह से बसाया जा रहा था उससे लिट्टे समर्थक संतुष्ट नहीं थे. IPKF द्वारा भी तमिलों पर अत्याचार की बातें सामने आ रही थी. इसके विरोध में थिलीपन नाम का एक लिट्टे सदस्य भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसका कहना था कि न तो समझौते की बातों पर अमल हो रहा है और न ही भारत सरकार अपनी भूमिका निभा रही है. 12 दिनों कि भूख हड़ताल के बाद थिलीपन की मौत हो गई. इस मौत ने एक बार फिर से लिट्टे में बदले की आग को हवा दे दी.
यह मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि एक और हादसा हो गया. श्रीलंका सेना ने लिट्टे के 17 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया. लिट्टे ने इनकी रिहाई के लिए भारत सरकार से मांग की. भारत सरकार ने इस मांग पर कोई तेजी नहीं दिखाई और इस बीच इन गिरफ्तार सदस्यों में से 12 लोगों ने सायनाइड खाकर आत्महत्या कर ली. थिलीपन की मौत से भड़की आग में इस हादसे ने घी का काम किया. इसके बाद तो लिट्टे ने भारत को भी अपना दुश्मन मान लिया और IPKF के 11 सैनिकों को जिंदा जलाकर मार डाला.
अब लिट्टे और IPKF ही आमने-सामने आ गए. यानी जो सेना भारत से शांति बहाली के लिए गई थी अब वही युद्ध में उलझ गई. भारतीय जनरल ने IPKF को लिट्टे पर खुले हमले के आदेश दे दिए. प्रभाकरन भूमिगत हो गया.
इधर भारत में राजीव गांधी द्वारा IPKF को श्रीलंका भेजे जाने का विरोध होने लगा. संसद से लेकर सड़कों तक प्रदर्शन और रेल रोको आंदोलन तक हुए. देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा था कि भारतीय सेना के जवान मारे जा रहे थे और राजनीतिक दल सेना का ही विरोध कर रहे थे.
1989 में सत्ता परिवर्तन हुआ और राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद से हट गए. नए प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आते ही IPKF को वापस बुलाने को फैसला किया. 24 मार्च 1990 को IPKF का अंतिम बेड़ा श्रीलंका से वापस लौट आया. अब तक हमारे कुल 1248 जवान श्रीलंका में शहीद हो चुके थे.
भारत में राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे थे. राजीव गांधी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावनाएं थी. लिट्टे को डर था कि राजीव गांधी अगर दोबारा प्रधानमंत्री बने तो उसका अलग देश का सपना कभी पूरा नहीं होगा. लिहाजा उसने अब उनकी हत्या का षड्यंत्र रचना शुरू किया.
हत्या का षड्यंत्र
प्रभाकरन के अलावा इस षड्यंत्र के मुख्य पात्रों में लिट्टे की खुफिया इकाई के मुखिया पोट्टू ओम्मान, महिला इकाई की मुखिया अकीला और सिवरासन शामिल थे. बल्कि सिवरासन ही इस षड्यंत्र का मास्टरमाइंड भी था. राजीव गांधी की हत्या करने के उद्देश्य से लिट्टे की कुल सात टुकड़ियों में लोग शरणार्थी बनकर भारत आए.
इन लोगों को हत्याकांड से पहले और उसके बाद छुपने के लिए जगह तलाशने का काम भी सौंपा गया था. इनमें से दो आरोपितों जयकुमार और रोबर्ट पयास के ठिकानों पर वायरलेस लगाए गए. यहां से लगातार जाफना संदेश भेजे जाते थे. पत्रकार राजीव शर्मा द्वारा लिखी गई किताब ‘बियोंड द टाइगर्स: ट्रैकिंग राजीव गांधीज असैशिनेशन’ में यह भी लिखा गया है कि भारतीय नौसेना और रॉ ने राजीव गांधी की हत्या से संबंधित ये संदेश पकड़ भी लिए थे, लेकिन इनको हत्या के कई महीनों बाद ही डिकोड किया जा सका.
1 मई, 1991 को सिवरासन लिट्टे के सबसे समर्पित और इस षड्यंत्र के सबसे महत्वपूर्ण लोगों को लेकर भारत आया. इनमें मानव बम धनु और उसकी सहेली सुबा सहित कुल नौ लोग शामिल थे. सुबा और धनु भारत आकर नलिनी से मिलीं. नलिनी एक भारतीय थी. उसे इन दोनों लड़कियों के अभिभावक की तरह रहने की जिम्मेदारी दी गई थी. सुबा ने नलिनी को IPKF के ख़िलाफ़ भड़काना शुरू किया.
उसने बताया कि भारतीय सेना ने सात तमिल लड़कियों का बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी थी. श्रीलंका में तमिलों पर हुए अत्याचार की बातें बताते हुए सुबा और धनु ने नलिनी को बताया कि इसके लिए राजीव गांधी जिम्मेदार हैं. बताया जाता है कि इसके बाद से नलिनी के मन में भी राजीव गांधी के प्रति बदले की भावना पैदा हुई.
सिवरासन ने भारत आने के बाद धनु और सुबा को ट्रेनिंग भी दी. सात मई को मद्रास में वीपी सिंह की सभा होने वाली थी. सिवरासन इस रैली में धनु, सुबा और नलिनी को लेकर गया ताकि वे एक पूर्व प्रधानमंत्री के सुरक्षा घेरे में जाकर उसे माला पहनाने का अभ्यास कर सकें. वीपी सिंह के मंच पर आने से पहले सुबा और धनु ने उन्हें माला पहनाई. अपनी ट्रेनिंग में मिली इस सफलता से दोनों लड़कियों के इरादे और भी ज्यादा मजबूत हो गए.
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उन्होंने अगले ही दिन जाफना संदेश भिजवाया कि अब उनका आत्मविश्वास बहुत मजबूत है और वे इसी महीने में अपना उद्देश्य पूरा कर लेंगी. 11 मई को नलिनी धनु के साथ टेलर के पास गई और उसके लिए नया सलवार-कुर्ता सिलवाया. यह कपड़े इस मकसद से ढीले सिलवाए गए थे कि इनमें विस्फोटक छिपाए जा सकें.
19 मई 1991 के अखबारों में राजीव गांधी का चुनावी कार्यक्रम प्रकाशित हुआ. यहीं से सिवरासन को मालूम हुआ कि 21 मई को राजीव गांधी श्रीपेरंबदूर आने वाले हैं. यह मौका वह चूकना नहीं चाहता था. उसने नलिनी से जगह के बारे में मालूम किया और उसे 21 मई को आधे दिन की छुट्टी लेने को कहा. 20 मई को सिवरासन ने पेरारिवलन को बैटरी खरीदने को कहा और साथ ही उससे एक कैमरे का रोल भी मंगवाया.
इसके बाद वह दिन आया जिसका इन लोगों को इंतजार था. सिवरासन ने सुबा और धनु को अंतिम उद्देश्य के लिए तैयार होने को कहा. धनु ने अपने शरीर में विस्फोटक लगाए और वही नया सिलवाया सलवार-कुर्ता पहन लिया. लगभग पांच बजे सिवरासन के साथ ही ये तीनों महिलाएं पास के एक बस स्टॉप पर पहुंचीं. यहां हरी बाबू पहले से ही एक कैमरे और एक माला लिए मौजूद था. सभी पांचों लोग यहां से श्रीपेरंबदूर के लिए बस से रवाना हुए. लगभग 7.30 बजे ये लोग उस स्थान पर पहुंच गए जहां राजीव गांधी की सभा होनी थी.
सिवरासन ने नलिनी को बताया कि उसे हर समय धनु और सुबा के साथ रहना है और इस बात का ध्यान रखना है कि कोई भी उन्हें उनकी श्रीलंकाई भाषा के कारण पहचान न ले. साथ ही उसने नलिनी को यह भी समझया कि हत्या के बाद वह सुबा को लेकर पास में बनी इंदिरा गांधी की मूर्ति के पास आ जाए और वहां दस मिनट तक उसका इंतजार करे. इसके बाद नलिनी, सुबा और धनु महिलाओं के लिए आरक्षित जगह पर बैठ गए.
राजीव गांधी के पहुंचने से कुछ समय पहले घोषणा हुई कि जो भी लोग उन्हें माला पहनाना चाहते हैं वे एक पंक्ति में खड़े हो जाएं. सिवरासन ने धनु को उसकी जगह से उठाया और उसे लेकर मंच के पास चला गया. वहां एक 14 साल की बच्ची और उसकी मां भी मौजूद थे. कोकिला नाम की यह बच्ची राजीव गांधी को हिंदी में एक कविता सुनाने वाली थी. हरी बाबू भी मंच के पास ही मौजूद था. वह एक पत्रकार के भेष में कैमरा लिए था. उसका काम था इस पूरे हत्याकांड की तस्वीरों को कैद करना.
कुछ ही देर में राजीव गांधी वहां पहुंच गए. धनु ने सिवरासन और सुबा को वहां से हट जाने का इशारा किया. राजीव गांधी कोकिला नाम की उस बच्ची से मिलने को रुके. कोकिला के लिए राजीव गांधी के चेहरे की वह मुस्कान उनकी जिंदगी की आखिरी मुस्कान थी. अगले ही पल एक धमाका हुआ और चारों तरफ सिर्फ लाशें, खून, चीख और आंसू पसर गए.
राजीव गांधी सहित कुल 18 लोगों की इस धमाके में मौत हो गई और कई लोग घायल हुए. धनु के साथ ही इस षड्यंत्र में शामिल हरी बाबू की भी मौत हो गई. हरी बाबू का काम फोटो खींचने का था. लिट्टे के हर ऑपरेशन की तस्वीरें और वीडियो बनाई जाती थी. ऐसा दो कारणों से होता था.
पहला, लिट्टे के अन्य सदस्यों को इन तस्वीरों के आधार पर असल घटनाओं का उदाहरण देते हुए ट्रेनिंग देना. और दूसरा, जब ईलम अलग राष्ट्र बने तो इसके संघर्ष में जान गंवाने वाले क्रांतिकारियों के बारे में आने वाली पीढ़ियों को बताना. लेकिन लिट्टे की यही दूरगामी सोच इस मामले में उसके गले का फंदा बनी. हरी बाबू की लाश के साथ पुलिस ने यह कैमरा बरामद किया जो इस षड्यंत्र को बेनकाब करने में सबसे अहम साबित हुआ.
हत्याकांड के तीन दिन बाद ही इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई. इसके बाद गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ. एक महीने के भीतर ही नलिनी और मुरुगन जैसे मुख्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. सिवरासन और सुबा सहित कई आरोपितों ने गिरफ्तारी से पहले ही आत्महत्या कर ली. सीबीआई ने पूरे एक साल में मामले की जांच पूरी की और विशेष न्यायालय में आरोपपत्र दाखिल कर दिया. इसमें कुल 41 लोगों को हत्याकांड का आरोपी बताया गया था. इनमें से 12 लोगों की मौत हो चुकी थी, तीन फरार थे और बाकी 26 गिरफ्तार कर लिए गए थे. फरार लोगों में प्रभाकरन, पोट्टू ओम्मान और अकीला शामिल थे.
इस हत्याकांड में एक पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रभावशाली नेता की मौत हुई थी. इसलिए इस हत्याकांड का राजनीतिक होना और इस हत्याकांड पर राजीनति होना दोनों ही स्वाभाविक थे. जैन कमीशन की अंतरिम रिपोर्ट लीक हुई तो तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि की भी राजीव गांधी की हत्या में भूमिका होने की बात सामने आई.
जैन कमीशन ने राजीव गांधी हत्याकांड में सीबीआई द्वारा की गई जांच पर भी सवाल खड़े किए थे और कई मुद्दों पर पुनः जांच की बात कही थी. लेकिन जैन कमीशन पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि इसकी रिपोर्ट बहुत हद तक राजनीतिक रूप से प्रभावित थी और इस रिपोर्ट का लीक होना भी सुनियोजित था.
बहरहाल, जैन कमीशन की रिपोर्ट पूरी होने तक न्यायालय की कार्रवाई भी पूरी हो चुकी थी. लगभग एक हजार गवाहों के लिखित बयान, 288 गवाहों से जिरह, 1477 दस्तावेज जिनकी कुल संख्या 10000 से ज्यादा थी, 1180 नमूनों एवं सबूतों और वकीलों के हजारों तर्कों के बाद विशेष न्यायालय ने सभी 26 दोषियों को हत्या और षड्यंत्र का दोषी पाया और सबको मौत की सजा सुना दी. विशेष न्यायालय के अनुसार यही इस मामले में न्याय था.
इस फैसले को चुनौती देने सभी आरोपित सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे. विशेष न्यायालय के फैसले के एक साल बाद ही इस मामले में न्याय की परिभाषा पूरी तरह से बदल गई. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विशेष अदालत का फैसला न्याय नहीं बल्कि ‘न्यायिक नरसंहार’ है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने 1999 में इन 26 में से 19 लोगों को रिहा कर दिया. कोर्ट ने इन सभी को हत्या और षड्यंत्र का दोषी नहीं माना और कहा कि जो अपराध इन पर बनते थे उनकी सजा ये लोग आठ साल जेल में रह कर पूरी कर चुके हैं.
तीन अन्य आरोपितों के अपराध को भी कम गंभीर पाते हुए न्यायालय ने उनकी फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया. सिर्फ़ नलिनी, मुरुगन, संथन और पेरारिवलन के अपराध को ही कोर्ट ने अक्षम्य मानते हुए फांसी की सजा सुनाई. फ़ैसल देने वाले तीन जजों में से एक जस्टिस थॉमस नलिनी की फांसी को भी माफ करने पक्ष में थे. लेकिन दो-एक के बहुमत से उसकी फांसी बरक़रार रही.
दरअसल गिरफ्तार होने के कुछ महीनों बाद ही नलिनी को एक बेटी हुई थी. यह बेटी काफी समय तक जेल में उसके साथ ही रही. जस्टिस थॉमस द्वारा नलिनी की फांसी माफ करने का एक कारण यह भी था कि उसकी एक छोटी बेटी थी. यदि मुरुगन (नलिनी का पति) और नलिनी दोनों को फांसी होती तो यह बच्ची अनाथ हो जाती. सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सोनिया गांधी व्यक्तिगत तौर पर राष्ट्रपति से मिलीं और उनसे नलिनी की फांसी माफ करने की अपील की.
साल 2000 में दया याचिका को मंजूर करते हुए नलिनी की फांसी माफ कर दी गई. जेल से बाहर रहते हुए नलिनी ने राजीव गांधी की हत्या की कुख्याति प्राप्त की तो जेल में रहते हुए एक कीर्तिमान भी अपने नाम किया. वह जेल में रहते हुए एमसीए की पढ़ाई पूरी करने वाली पहली भारतीय बन गई है. यह भी एक संयोग ही है कि उसे अपनी यह डिग्री ‘इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय’ से मिली है.
नलिनी की फांसी माफ होने के बाद इस मामले में तीन ही आरोपित फांसी की राह पर रह गए थे. इन्होंने राष्ट्रपति के सामने साल 2000 में दया याचिका दाखिल की. इस दया याचिका पर 11 साल बाद फैसला लिया गया. भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा फांसियां माफ करने वाली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इनकी फांसी को माफ नहीं किया. उन्हें इन तीन आरोपितों को मौत की सजा देना ही न्याय लगा.
राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज हो जाने के बाद इन तीनों आरोपितों को फांसी देने के लिए नौ सितंबर 2011 का दिन तय किया गया. लेकिन अब मद्रास उच्च न्यायालय ने इसे अन्याय माना और इस पर रोक लगा दी. मामला एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया. फरवरी 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह मान लिया कि अब फांसी देना सही नहीं है क्योंकि इनकी दया याचिका को 11 साल तक लंबित रखा गया था.
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन तीन आखिरी आरोपितों की भी फांसी माफ कर दी गई. इस फैसले के अगले ही दिन तमिलनाडु सरकार ने जेल में कैद सभी सात आरोपितों को रिहा करने की घोषणा भी कर दी. लेकिन केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया और यह मामला फिर से न्याय तलाशता हुआ सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया.
न्याय की किताबी परिभाषाओं से इतर यदि व्यावहारिकता देखी जाए तो न्यायालय का फैसला ही न्याय माना जाता है. इस तरह से 18 लोगों की हत्या के इस मामले में जो भी और जब भी हुआ न्याय ही हुआ है. 26 लोगों को फांसी सुनाना भी न्याय था, फिर इनमें से 19 लोगों को बरी कर देना भी न्याय था, चार लोगों की फांसी बरकरार रखना भी न्याय था और सबकी फांसी माफ होना भी न्याय था. अब बाकी सात लोगों पर फैसला चाहे रिहाई का आए या आजीवन कारावास का, जो भी फैसला होगा वह न्याय ही होगा.
(राहुल कोटियालका ये आलेख 2014 में देश की मशहूर खोजी पत्रिका तहलका में प्रकाशित हुआ था. साभार राहुल कोटियाल फेसबुक.)