आशीष आनंद-
‘एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़, न कोई बंदा रहा न कोई बंदा नवाज़’। यह मशहूर शेर कहकर इस्लाम को भेदभाव न बरतने वाले मजहब होने का दावा किया जाता रहा है। जाति व्यवस्था, नस्लवाद या इसी तरह के भेदभाव के जवाब में यही कहा जाता है अक्सर। व्यवहार में यह दावा कितना ठोस है, यह परखने की बात है।
भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में जात-पात या छुआछूत का मसला मानसिक बीमारी के स्तर का है, जो ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था की देन है। लेकिन अगर अरब में भी अछूत प्रथा हो तो क्या कहा जाएगा। वह भी बिल्कुल वैसे, जैसे भारत में वाल्मीकि समुदाय। उस अरब में जहां इस्लाम ने जन्म लिया, जहां पैगंबर मुहम्मद के साफ निशान मौजूद हैं। जहां दुनिया के लाखों लोग हर साल इस्लाम के अहम सिद्धांत हज करने जाते हैं। उसी धरती पर लाखों लोगों की जिंदगी आज भी नरक है और वे अछूत हैं।
हम बात कर रहे हैं अरबी देश यमन की। जहां पैगंबर मुहम्मद ने अपने चचेरे भाई अली को सना और उसके आसपास 630 ईसवीं में इस्लाम के प्रचार-प्रसार को भेजा। उस वक्त यमन अरब का सबसे उन्नत इलाका था। जनजातीय कबीलों के बीच एकता बनाने के प्रयास किए, जिसमें कामयाबी भी मिली। कई यमनियों ने साल 630 से पहले ही इस्लाम कबूल कर लिया था, जिससे इस्लाम के प्रसार की जमीन मौजूद थी।
काबा पर किस्वा डालने वाले पहले शख्स असद अल हिमैरी यमन के ही थे। पैगंबर मुहम्मद ने जो कपड़ा किस्वा के लिए इस्तेमाल किया, वह यमनी था। आज भी किस्वा के लिए कपड़े का हिस्सा यमन से भी आता है। किस्वातुल काबा पर लिखी तीन पंक्तियों में पहली लाइन में लिखा जाता है- या हन्नान- या मन्नान। हन्नान का मतलब है नौकरों के प्रति दयालु और मन्नान का मतलब है देने में जबरदस्त।
अल्लाह के घर के कवर पर दर्ज इस पहली लाइन के साथ ही जब यमन के अखदम समुदाय को देखेंगे तो बहुत अफसोस होगा।
अखदम का अरबी में मतलब सेवक होता है, अल मुहमाशेन यानी हाशिए के लोग भी कहा जाता है। खादिम शब्द का बहुवचन है अखदम। बाकी यमनियों की तरह ही यह भी अरबी भाषी मुसलमान हैं, लेकिन उन्हें समाज के सबसे निचले पायदान पर गिना जाता है। जो सामाजिक रूप से अलग-थलग हैं। जिनकी आबादी ढाई करोड़ के देश में पांच लाख से ज्यादा है।
भेदभाव विरोधी सावा जैसे संगठन उनकी आबादी 35 लाख तक आंकते हैं। राजधानी सना, अदन, ताज़ीज़, लाहिज, अबयान, अल हुदायदाह और मुकाल्ला में अच्छी संख्या है। समुदाय के पुरुष आमतौर पर सना में रहते हैं, जिससे गुजारा चल सके।
उनके वजूद का इतिहास लगभग नदारद है, जैसे दुनिया में कई समुदायों का है, जो मुख्यधारा से हारे थे या फिर उनके गुलाम बनने को मजबूर हुए। अखदम के बारे में यह भी लोकप्रिय धारणा है कि वे निलोटिक सूडानी लोगों के वंशज हैं, जो कभी इस्लामिक काल से पहले यमन के कब्जे के दौरान एबिसिनियाई सेना के साथ थे। मुस्लिम युग की शुरुआत में एबिसिनियन सैनिकों को बाहर निकाला गया तो सूडान के कुछ प्रवासी वहीं रह गए, वही अखदम हो गए।
भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वालों का कहना है कि यह समुदाय यहां सदियों से है। उनके पूर्वज अल-अहबाश जनजाति के हैं, जो आधुनिक इथियोपिया से आए, जिनको 525 ईसवी में गुलाम बनने को मजबूर किया गया।
कुछ मानवशास्त्री स धारणा को गलत ठहराते हैं। उनका कहना है कि यमन के इतिहास और सामाजिक पदानुक्रम का जो सामाजिक ढांचा बना, वहीं से यह समुदाय वंशानुगत जाति-जैसा समाज बनाया गया। ऐसा भी कहा जाता है कि 20वीं सदी के मध्य में, यहूदी गांव अल-गदेस के आसपास के इलाकों में रहने वाले अखदमों को यहूदियों ने ‘कानो’ नाम दिया था।
1000 साल से ज्यादा समय से अरबी बोलने और इस्लाम अपनाने के बावजूद उनको गले लगाने वाला कोई नहीं है। वे सामाजिक वर्गों के दूसरे या तीसरे पायदान के नहीं, बल्कि छठे पायदान या कहें सबसे नीचे के पायदान पर हैं।
इस समुदाय के साथ भेदभाव, उत्पीड़न और सामाजिक बहिष्कार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यमनी कहावत में कहा जाता है, ‘कुत्ते ने प्लेट छू ली तो साफ कर लें, लेकिन खादिम ने छुआ तो तोड़ दें’। उन्हें नीच, गंदा और अनैतिक कहकर अपमानित किया जाता है। पूरी तरह अछूत हैं। अख़दम और यमनी माता पिता से पैदा हुए बच्चों और भी भेदभाव का शिकार होते हैं, उनके लिए जान का जोखिम भी होता है।
अखदम समुदाय को प्रसव से जुड़े गंदगी की सफाई, कूड़ा बीनने, जूता बनाने और शौचालय की सफाई के कामों में जबरन लगाया जाता है। जिनको कोई काम नहीं मिल पाता, वे आमतौर पर भीख मांगकर गुजारा करते हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं होती हैं। तीन वक्त सबको खाना मिल जाए, ऐसा भी अमूमन नहीं होता। भूखे रहना उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है।
यहां तक कि नौकरी करने वाले लोग भी भेदभाव से नहीं बचे हैं। दशकों से काम करने के बाद भी अखदम स्वीपरों को शायद ही कभी इस काम का ठेका दिया गया हो। उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता। यहूदी अखदमों को खेत में मजदूरी पर रख सकते हैं, लेकिन मुसलमान बिल्कुल नहीं।
वे आमतौर पर यमनी समाज के बाकी हिस्सों से अलग-थलग कपड़ों और लकड़ी से बनी झुग्गियों में रहते हैं। अख़दम लोगों के लिए बिजली, स्वच्छ पेयजल और सीवेज जैसी बुनियादी सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं। इस नर्क जैसी जिंदगी में मौत उनकी चौखट पर बैठी रहती है।
उनके बच्चे अक्सर डिस्पेनिया, मलेरिया और पोलियो जैसी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं, जिससे मृत्यु दर भी ज्यादा है। शिशु मृत्यु दर भयावह है। शिक्षा जैसी चीज तो उनके लिए है ही नहीं, तो गंभीर संक्रामक बीमारियों का जोखिम बना रहता है। स्कूल-अस्पताल उनकी पहुंच से बहुत दूर हैं। चावल और पानी ही उनकी सांस का सहारा हैं।
इस समुदाय का जीवन सुधारने की कोशिश करने वाले केयर इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं की कथित कोशिशें भी परवान नहीं चढ़ सकीं। उनके लिए योजनाएं अक्सर कागजों में दर्ज होकर रह गईं। मदद के लिए एनजीओ की ओर से मिलने वाला धन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है या फिर उसका दुरुपयोग होता है।
पारंपरिक यमनी समाज के बीच अखदमों के साथ इस तिरस्कार को सरकारी अमला भी जानता है, लेकिन आधिकारिक तौर पर भेदभाव नहीं है। यमनी सरकार ने कई बार उनके लिए आश्रयों का निर्माण कराया, जिन्हें 30 प्रतिशत अखदमों ने बेच दिया, क्योंकि वे वहां असुरक्षा महसूस करते थे और उन्हें पैसे की जरूरत थी।
उनके हालात दुरुस्त करने को एक राजनीतिक दल भी बना, जिससे वह कुछ सहूलियत दिलाने में मदद कर सके। दस साल पहले 2011 में यमनी विद्रोह में अखदम भी शामिल हुए, जिनकी मौजूदगी से ही राजधानी सना और ताइज शहर कांपने लगे। वे सिर्फ इस उम्मीद पर इस विद्रोह में शामिल हुए कि शायद उनके साथ सितम कुछ कम हो जाए।
इस स्थिति को बदलने को वे कसमसाते हैं, लेकिन उनकी कोशिश कामयाब नहीं हो पाई। अप्रैल 2012 की शुरुआत में वेतन बढ़ाने और अनुबंधों को बेहतर बनाने की मांग पर राजधानी सना में 4 हजार अखदम स्ट्रीट स्वीपर हड़ताल पर चले गए। सरकार उनसे बातचीत को मजबूर हुई, अंतरिम प्रधानमंत्री ने वादा भी किया, लेकिन हुआ कुछ नहीं।
गुलामी और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाले संगठन के प्रमुख अखदम नबील अल मकतारी ने इससे पहले 2011 में हजारों अन्य यमनियों – छात्रों, प्रोफेसरों, सैनिकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ पूर्व राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह की सरकार को उखाड़ फेंकने की मांग करते हुए प्रदर्शन किया।
उस समय भी सरकार ने सफाईकर्मियों को 50 हजार रियाल की सुरक्षा देने का वादा किया, जो आज तक किसी को नहीं मिला। ईद तक पर उनको काम के एवज में कोई अतिरिक्त पैसा नहीं मिला। सच्चाई यह है कि इस समुदाय के किसी सदस्य को जान से भी मार दिया जाए तो उसके पास इंसाफ पाने तक का रास्ता नहीं है। ऐसा कोई कानून ही उनके लिए नहीं है।
एक विदेशी पत्रकार ने जब इस समुदाय के साद नामक युवक से हालात और भविष्य के बारे में बात की तो उसका जो जवाब था, वह किसी को भी झकझोर देगा। उसने कहा, ‘हमारी जिंदगी में सिर्फ अंधेरा है। हमें कोई उम्मीद नहीं है, हमारे कोई ख्वाब नहीं हैं। हम केवल मौत की उम्मीद करते हैं।’