‘उर्दू की आखिरी किताब’ लिखने वाले इब्ने इंशा का आज जन्मदिन है, पढ़िए उनके ये व्यंग्य

0
704

पंजाब के फिल्लौर में 15 जून 1927 को जन्मे इब्ने इंशा पाकिस्तान में उसी तरह मशहूर हैं, जैसे भारत में हरिशंकर परसाई। उनके व्यंग्य हर विषय पर हैं। उर्दू की आखिरी किताब उनकी मशहूर पुस्तक है। वास्तविक नाम शेर मुहम्मद खान था। 11 जनवरी 1978 को इंग्लैंड में उनका निधन हुआ।


हम क़ारईन कराम के इसरार पर ख़ानादारी के कुछ चुटकुले दर्ज करते हैं। उम्मीद है क़ारईन इन्हें मुफ़ीद पाएंगी और हमें दुआ-ए-ख़ैर से याद करेंगी।

– इब्ने इंशा

सुई में धागा डालना

ये काम ब-ज़ाहिर मुश्किल मालूम होगा लेकिन अगर ज़रा तवज्जो से इसकी तरकीब को ज़ेहन नशीन कर लिया जाये तो कोई दिक़्क़त पेश न आएगी। सबसे पहले एक सुई लीजिए। ले ली, अब धागा लीजिए, और अब वो धागा उसमें डाल दीजिए। बस इतनी सी बात है।

एहतियात सिर्फ इतनी लाज़िम है कि सुई के दो सिरे होते हैं, एक नोक दूसरा नाका। बा’ज़ लोग नोक की तरफ़ से डालने की कोशिश करते हैं। कभी कभी इसमें कामयाबी भी हो जाती है, लेकिन ये तरीक़ा ग़लत है। सही तरीक़ा ये है कि नाके में धागा डाला जाये।

पुरानी किताबों में आया है कि ऊंट को सुई के नाके में से गुज़ारना आसान है बनिस्बत इसके कि कंजूस आदमी जन्नत में जाये। इस आख़िर-उज़-ज़िक्र की बात की हमने कभी कोशिश नहीं की, हालाँकि ये लोग किसी सूरत जन्नत में चले जाते तो वहां जहां लोगों के गुमान के मुताबिक़ हमारा क़ियाम होगा, क़दरे अमन रहता।

अब रहा ऊंट को सुई के नाके में से गुज़ारना जिसे आसान बताया जाता है। हमें एतराफ़ है कि अभी तक हमें इसमें कामयाबी नहीं हुई। सच ये है कि अभी तक ऐसा ऊंट हमें कोई नहीं मिला जो इस बात पर आमादा हो। जब कि ऐसे कंजूस बेशुमार मिल जायेंगे जो जन्नत में जाने के लिए तैयार बल्कि बेताब होंगे।

हमारी नाकामी का मतलब ये नहीं कि हम मायूस हो गए। एक तरफ़ हम अपने मतलब के ऊंट की तलाश में हैं। दूसरी तरफ़ ऐसी सुई की जुस्तजू जारी है जिसका नाका इतना बड़ा हो जिसमें से ये हैवान शरीफ़ हँसता खेलता गुज़र सके। हमारे क़ारईन में से किसी साहिब या साहिबा के पास ऐसी सुई हो तो आरियतन देकर ममनून फ़रमाएं। तजुर्बे के बाद वापस कर दी जाएगी।

बटन टांकना

बटन कई तरह के होते हैं। मसलन कुरते का बटन, पतलून का बटन, सीप का बटन, हाथी दांत का बटन, बिजली का बटन वग़ैरा। बा’ज़ ख़ास क़िस्म की आँखों को भी जिनके बनाने में कारकुनान-ए-क़ज़ा-ओ-क़ुदरत ने फ़य्याज़ी से मसाला इस्तेमाल न किया हो, बटन का नाम दे देते हैं लेकिन यहां हमें इस क़िस्म के बटनों से कोई सरोकार नहीं।

उनका लगाना सिर्फ़ क़ज़ा-ओ-क़ुदरत के दर्ज़ियों को आता है। बिजली के बटन लगाने के लिए भी इलेक्ट्रीशियन के लाईसेंस की ज़रूरत होती है। यहां हमारी ग़रज़ आम क़िस्म के बटनों से है जिन्हें आप भी थोड़ी कोशिश कर के लगा सकती हैं। कोई लाईसेंस वग़ैरा का झंजट भी इसमें नहीं।

इसके लिए सामान भी मामूली दरकार है। सुई, धागा बटन और दांत। उनके इलावा कपड़ा भी, क्योंकि बटन बिलउमूम कपड़े पर टांके जाते हैं लकड़ी या लोहे पर या ख़ला में नहीं। सुई में धागा डालने की तरकीब हम लिख ही चुके हैं। अब सुई को बटन के सुराख़ में से गुज़ारना रह जाता है जो आप किसी से भी सीख सकती हैं। अब बटन लग गया तो फ़ालतू धागा दांतों से काट डालिए। याद रहे कि इसके लिए असली दांत दरकार हैं। मस्नूई दांतों से कोशिश करने में हमने देखा है कि कभी कभी दांत धागे के साथ चले जाते हैं।

बटन लगाने से ज़्यादा मुश्किल काम बटन तोड़ना है और ये एक तरह से धोबियों का कारोबारी राज़ है। हमने घर पर कपड़े धुलवा कर और पटख़वा कर देखा लेकिन कभी इसमें कामयाबी न हुई जब कि हमारा धोबी उन्ही पैसों में जो हम धुलाई के देते हैं, पूरे बटन भी साफ़ कर लाता है, इसके लिए अलग कुछ चार्ज नहीं करता। एक और आसानी जो उसने अपने सरपरस्तों के लिए फ़राहम की है, वो ये है कि अपने छोटे बेटे को अपनी लांड्री के एक हिस्से में बटनों की दुकान खुलवा दी है जहां हर तरह के बटन ब रिआयत नर्ख़ों पर दस्तयाब हैं।

दाग़ धब्बे मिटाना

इसके लिए पहली ज़रूरी शर्त दाग़ धब्बे डालना है क्योंकि धब्बे नहीं होंगे तो आप मिटाएंगे क्या। पहले फ़ैसला कीजिए कि आप किस क़िस्म के धब्बे मिटाना चाहते हैं। स्याही के? इसके लिए फ़ोंटेन पेन को क़मीस पर एक दो बार छिड़कना काफ़ी है। आजकल आमों का मौसम है। उनका रस भी पतलून पर गिराया जा सकता है।

पान के दाग़ ज़्यादा पायदार होते हैं, उनके लिए किसी अस्पताल या सिनेमा की सीढ़ीयों में चंद मिनट खड़े होना काफ़ी है। तारकोल के दाग़ भी आजकल मुफ़्त हैं क्योंकि के डी ए ने, जो रफ़ाह-ए-आम्मा का एक महकमा है, जा ब जा तारकोल के ड्रम खड़े कर रखे हैं और कढ़ाओ चढ़ा रखे हैं।

इन दाग़ों के मिटाने पर ज़्यादा ख़र्च भी नहीं उठता फ़क़त तीन रुपये। ये हमारी तालीफ़ कर्दा किताब “दाग़ हाय मुअल्ला” की क़ीमत है, बल्कि उसकी पांच जिल्दें इकट्ठी मंगाई जाएं तो लिंडा बाज़ार और बोतल वाली गली के दुकानदार जो हमारे सिविल एजेंट हैं, तौल कर भी डेढ़ रुपये फ़ी सेर के हिसाब से दे देते हैं।

“दाग़ हाय मुअल्ला” अजीब सा नाम होगा लेकिन ये तारीख़ी नाम है जिससे 1389 हि. बरामद हो जाते हैं। आजकल 1386 हि. चल रहा है। उसको हमारी किताब का आइन्दा एडिशन समझा जाये।

ख़ाली वक़्त कैसे गुज़ारा जाए

एक मशहूर मिस्ल है कि अच्छी बात जहां से भी मिले अख़्ज़ कर लेनी चाहिए। सो इस बाब में हम अपने एक अंग्रेज़ी हफ़्तावार मुआसिर के सफ़ा ख़वातीन से भी मदद ले रहे हैं।

फ़ाज़िल मुसन्निफ़ या मुसन्निफ़ा ने दफ़ा-उल-वक़ती के लिए कोई बेकार क़िस्म का मशग़ला तजवीज़ नहीं किया जैसा कि बा’ज़ लोग क़िस्सा-ख़्वानी, कशीदाकारी या बच्चों को आमोख़्ता याद कराने वग़ैरा का मश्वरा देते हैं जिसमें क़तअन कोई फ़ायदे या याफ़्त का पहलू नहीं बल्कि लिखा है कि ब्रिज, रमी या माहजोंग वग़ैरा खेलने की आदत डालिए।

पुराने ख़्याल के लोग रश्क-ओ-हसद के मारे इन खेलों पर नाक भौं चढ़ाएंगे और मुम्किन है इसको जुआ वग़ैरा भी क़रार दें लेकिन उनकी पर्वा न करनी चाहिए।

फ़ाज़िल मुसन्निफ़ या मुसन्निफ़ा ने लिखा है कि ताश की बाज़ी पर पैसे ज़रूर लगा के खेलिए लेकिन ज़्यादा नहीं थोड़े। इससे वाज़ेह होगा कि जुआ सिर्फ़ वो होता है जिसमें ज़्यादा पैसे लगा कर खेला जाये। इस मज़मून में एक और एहतियात की तलक़ीन की गई है।

लिखा है कि ऐसा भी न हो कि इधर मियां ने दफ़्तर जाने के लिए घर से बाहर क़दम रखा और इधर बेगम साहिबा रमी खेलने पड़ोसन के हां चली गईं और फिर मियां की वापसी के बाद घर तशरीफ़ लाएं। गोया सिर्फ़ आठ सात घंटे खेलना काफ़ी है।

मियां के दफ़्तर से आने के वक़्त का अंदाज़ा कर लिया जाये और जो दस बीस रुपये जीते हों इस पर इकतिफ़ा करके उस वक़्त तक ज़रूर वापस आ जाना चाहिए। जो ख़वातीन ज़्यादा बड़ी बाज़ी लगाती हैं या मियां की वापसी के बाद घर आती हैं उनके मुताल्लिक़ भी इस मज़मून में लिखा है कि वो नुक्ताचीनी से ज़्यादा हमदर्दी की मुस्तहिक़ हैं। क्या अजब उनके जी को क्या रोग लगा है जिसके फ़रार के तौर पर वो शर्तें बांध के और यूं जम के रमी या ब्रिज खेलती हैं।

एक साहिबा ने दफ़ा-उल-वक़ती के लिए एक जानवर पालने का शुग़ल इख़्तियार किया है। उन्होंने दो ख़रगोश, पांच चूहे, दो बिल्लियां, एक कुत्ता, दस तीतर और दो तोते पाले थे जिनमें से एक बोलता भी है। अब उनमें से सिर्फ़ चिड़ियां और दोनों तोते रह गए हैं क्योंकि चूहों को बिल्लियां पहले ही रोज़ नोश जान कर गई थीं और कुत्ते को नाश्ता देने में देर हुई तो उसने पिछले मंगल को ख़रगोश का सफ़ाया कर दिया।

ये ख़्याल भी न किया कि उस रोज़ गोश्त का नाग़ा होता है। बिल्ली को घर से भगाने में भी इस ज़ात शरीफ़ का हाथ बताया जाता है। लेकिन अब इस अमर पर बहस फ़ुज़ूल है क्योंकि कमेटी वाले उसे पकड़ कर ले जा चुके हैं। हमने मौसूफ़ा को कई बार तीतर के गोश्त के फ़ज़ाइल पर लेक्चर दिए हैं कि मज़ेदार होता है और ख़ून सालिह पैदा करता है।

उनके बावर्ची ने भी हमारी बात की बारहा ताईद की है लेकिन वो अभी तक मुताम्मिल हैं। इस वक़्त उनकी तवज्जो तोते को पढ़ाने पर है। वो तो हैवान का हैवान ही रहा लेकिन मौसूफ़ा को बोलता सुनते हैं तो कई बार शुबहा होता है कि मियां मिट्ठू बोल रहा है।

(यह व्यंग्य इब्ने इंशा की किताब ‘आप से क्या परदा’ से लिया गया है)


यह भी पढ़ें: #Hajj 2021: महिलाएं अब बिना महरम कर सकती हैं हज, सऊदी अरब ने दी मंजूरी


(आप हमें फ़ेसबुकट्विटरइंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here