तीन चेहरे, जिन्होंने भारतीय सिनेमा से लेकर दर्शकों की सोच तक को बदला

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दिनेश श्रीनेत

ये एक बहुत प्यारी सी तस्वीर है। उस खूबसूरत अतीत के छोटे से हिस्से को मानो किसी ने चुराकर सदा के लिए सहेज लिया है। स्मिता की चमकती आंखें और चेहरे की यह मुस्कान अब कायनात में कहां खो गई? ये तीनों अब इस दुनिया में नहीं हैं। क्या पता ये तस्वीर भी एक दिन खो जाए और ये जो शब्द मैं उनके लिए लिख रहा हूँ… ये भी खो जाएं। मगर मुझे यकीन है कि यह सब कुछ समय की किसी अदृश्य फाइल में हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है। हम रहें न रहें, खूबसूरत क्षण हमेशा रहेगा।

स्मिता की वह धवल मुस्कान, ओम पुरी के चेहरे पर सुकून के संग थोड़ा सा संशय और थोड़ी उत्सुकता। पीछे एक ‘कंप्लीट मैन’, बहुमुखी प्रतिभा वाली एक ऐसी शख़्सियत जो अपने साथ एक पूरा संसार लेकर चलता है। इस संसार में कितने तो किरदार हैं, कितनी कहानियां हैं, संगीत के टुकड़े हैं, चेहरे हैं, चेहरों के भाव हैं, रंग हैं, रेखाएं हैं, यादें हैं, प्रतिरोध है, गुस्सा भी है, एक गहरी ईमानदारी है। आप उनकी शारीरिक भंगिमा देखिए। उनकी दृष्टि, एक हाथ से किस तरह पाइप थाम रखा है और दूसरा हाथ कमर पर किस आत्मविश्वास के साथ है। झूठे आत्मविश्वास और उथले ज्ञान से यह भंगिमा नहीं आ सकती।

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इस तस्वीर के तीन चेहरे कुछ और कहानी भी कहते हैं। एक ऐसी कहानी जिसमें एक नए सिनेमा, एक नई कला दृष्टि, एक नए एस्थेटिक्स का जन्म हो रहा है। कहां भारतीय सिनेमा स्क्रीन की असाधारण सुंदरियां और उनकी मिथकीय गाथाएं, चाहे वो मधुबाला हों या मीना कुमारी और कहां एक सांवली सी बड़ी-बड़ी आंखों वाली लड़की। कहां हमारे सिनेमा नायकों के खूबसूरत चेहरे, हेयरस्टाइल, छोटी-छोटी अदाएं और कपड़े पहनने का अलहदा अंदाज और कहां चेहरे पर चेचक के दाग लिए खरखरी आवाज वाला एक दुबला-पतला नौजवान। जो सबसे बेहतरीन अभिनय उस वक्त करता था, जब वो खामोश रहता था।

और पीछे खड़े माणिक दा को एक बार फिर देखें, सचमुच प्रतिभा से दमकता एक हीरा। जिसका मन ब्रिटिश एडवरटाइजिंग एजेंसी में नहीं रमा और उसने एक ऐसी फिल्म बनाई, ‘पाथेर पांचाली’- जिसके बारे में कहा जाता था कि जैसे जीवन सीधे कैमरे से होता हुआ फिल्म में उतर गया।

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संयोग से इन तीन चेहरों की एक और कहानी है जिसकी कड़ी प्रेमचंद से जुड़ती है। यह तस्वीर ‘सद्गति’ फिल्म की डबिंग के दौरान की है। जिसमें इन तीनों प्रतिभाओं का सुखद संयोग था। डबिंग के दौरान की एक छोटी सी रिकॉर्डिंग भी यूट्यूब पर मौजूद है, जिसे देखना बहुत सुकून भरा है।

अब अगर आप गौर करें तो ये तीनों ही ऐसी प्रतिभाएं थीं जिन्होंने अपनी कला के जरिए ‘साधारणता का उत्सव’ मनाया। स्मिता के आने के बाद न तो नायिकाएं वैसी रह गईं, न ओम पुरी के आने के बाद नायक पहले जैसे रह गए। बनावटी चटख की जगह जिंदगी के धूसर रंग सिनेमा में प्रवेश कर गए। अब अभिनेता की आंखें बोलती थीं, हम उनके मन उनकी आत्मा में झांक आते थे।

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जब-जब मैं इस तस्वीर देखता हूँ मुझे जिंदगी की सादगी, उसकी ईमानदारी, उसकी गहराई और सबसे बढ़कर उसकी असाधारण साधारणता पर यकीन और गहरा हो जाता है। ये तस्वीर इसलिए मुझे इतनी प्रिय है। इसमें एक लय है। एक स्त्री की निश्छल हंसी, एक युवक का परिश्रम और संशय और एक पुरुष का गहरा आत्मविश्वास- यह सब मिलकर कुछ ऐसा रचते हैं जो जिंदगी के लिए बहुत सकारात्मक है।

तीनों एक ही तरफ देख रहे हैं, जो कि दरअसल स्क्रीन है। हालांकि देखने का अंदाज तीनों का अलग है, मगर उनके दमकते चेहरे दरअसल एक भविष्य की तरफ भी देख रहे हैं। इन तीनों की आंखों में एक ऐसी आने वाली दुनिया की तस्वीर है जो यकीनन पहले से ज्यादा खूबसूरत होगी।

इन तीन चेहरों ने भारतीय सिनेमा को बदल दिया, हमारे आपके सोचने के तरीके को तो बदल ही सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व सिनेमा के समीक्षक हैं, यह उनके निजी विचार हैं, साभार)

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