हिमालय की गोद में रखे ये ‘टाइम बम’, सर्दी में ग्लेशियर टूटने के कारणों को जानें

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मनमीत

उत्तराखंड में ताजा त्रासदी को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं। खासतौर पर यह कि ऐसा कैसे हो गया कि सर्दी में ग्लेशियर कैसे टूट गया, जबकि दो दिन पहले ही बर्फ तक गिरी है। सर्दियों में एवलांच का टूटना अमूमन नहीं होता है। हिमालय परिक्षेत्र में एवलांच अक्सर गर्मियों में टूटते हैं।

इस मामले में पड़ताल की गई तो हैरान करने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं। हालात ये हैं कि हिमालय इन दिनाें खासा गर्म है। यहां इंसानी जरूरतों के लिए कहें या फिर मुनाफे की होड़ ने यह नौबत ला दी है कि इन दिनों हिमालय का तापमान मई-जून के महीने जैसा हो गया है। जिस ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर दुनिया में चर्चा है, वह हमारे सिर पर आ चुकी है।

हिमालय में ग्लोबल वार्मिंग का व्यापक असर अब साफ दिखने लगा है। वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान के पूर्व ग्लेशियर वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं कि सर्दियों में भी एवलांच खिसकते हैं।

ऐसा तब होता है, जब अत्याधिक हिमपात होता है और दबाव पड़ने से ऊपर की बर्फ नीचे की ओर दबाव बनाने लगती है। इस बार उतराखंड से लगते हिमालय परिक्षेत्र में पिछले बीस सालों का सबसे कम हिमपात हुआ है।

ऐसा नहीं लगता की अत्याधिक हिमपात होने के चलते ऐसा हुआ होगा। शुरूआती लक्षण ग्लोबल वार्मिंग के चलते बर्फ के तेजी से पिघलने के बाद एवलांच के ब्रेक होना लग रहा है।

उत्तराखंड के उच्च हिमालय में स्थित पर्वतों में आजकल दोपहर को तापमान सामान्य से पांच डिग्री ज्यादा हो रहा है। बेहद कम हिमपात होने से हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं, डॉ. डोभाल ने कहा।

धौलीगंगा ग्लेशियर में बीस सालों का शोध करने वाले वरिष्ठ वैज्ञानिक और यूसर्क के निदेशक प्रोफेसर एमपीएस बिष्ट कहते हैं, ये चिंता का विषय है कि सर्दियों में वो घटना हिमालय में हो रही है, जो गर्मियों में हुआ करती थी।

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हिमालय परिक्षेत्र को तबाही की ओर ले जा रहे स्थायी निर्माण

वैज्ञानिकों के शोध के अनुसार न केवल ग्लेशियर के पानी से बनी सतोपंथ झील का दायरा कम हो गया है, ऋषि गंगा कैचमेंट एरिया के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से कराए गए अध्ययन में यह खुलासा हुआ है।

बीस सालों के अध्ययन में सामने आया है कि गलेशियरों में तकरीबन 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।

1980 में नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के ऋषि गंगा कैचमेंट का कुल 243 वर्ग किमी एरिया बर्फ से ढका था, लेकिन 2020 में यह एरिया 217 वर्ग किमी ही रह गया। अब इसमें दस प्रतिशत की और गिरावट दर्ज की गई है।

उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसेक) ने सेटेलाइट डेटा के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि 37 सालों में हिमाच्छादित क्षेत्रफल में 26 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है।

शोध में ये भी सामने आया है कि इस क्षेत्र में पहले स्थायी स्नो लाइन 5200 मीटर पर थी, जो अब 5700 मीटर तक घट बढ़ रही है। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के पूर्व निदेशक प्रो. एमपीएस बिष्ट के निर्देशन में हुए इस अध्ययन में शोध छात्र डॉ. मनीष मेहता और श्रीकृष्ण नौटियाल भी शामिल थे।

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ऋषि गंगा के साउथ डाउनफॉल सबसे ज्यादा प्रभावित

यूसेक के निदेशक और वरिष्ठ भू गर्भीय वैज्ञानिक प्रो डॉ एमपीएस बिष्ट ने बताया कि ऋषि गंगा कैचमेंट एरिया की उत्तरी ढलान के ग्लेशियर ज्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं, लेकिन दक्षिणी ढलान के ग्लेशियर में बदलाव देखा गया है।

इस ओर के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के ग्लेशियर यदि इसी तरह से पिघलते रहे तो आने वाले समय में इस क्षेत्र के वन्य जीव जंतुओं और वनस्पतियों पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।

टाइम बम जैसे साबित होंगे निर्माण कार्य

हिमालय से लगते क्षेत्रों में बडे निर्माण होना आने वाले समय के टाइम बम साबित होंगे। जिन इलाकों में इंसानों को कम आक्सीजन के चलते सांस लेने में दिक्कत होती है, वहां बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। इस संबंध में वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट बनाकर केंद्र और राज्य सरकार को सौंपी हैं।

उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के पूर्व निदेशक और वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक प्रो. एमपीएस बिष्ट ने अपनी रिपोर्ट में 2013 में केदारनाथ में आई आपदा का हवाला देते हुए बताया कि जो निर्माण कार्य केदारनाथ में हुए उसके चलते ही कालांतर में केदारनाथ में बड़ी आपदा आई। इसी तरह नंदादेवी बायो रिजर्व में तो बांध दिया गया। ये भविष्य के ‘टाइम बम’ होंगे, उन्होंने कहा।

एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया है कि जिस तरह आल वेदर रोड के लिए लाखों पेड़ काटे गए, उससे भी भविष्य में बहुत समस्याएं होंगी। चिपको आंदोलन का नेतृत्व कर चुके मशहूर पर्यावरणविद् और पद्म विभूषण सुंदर लाल बहुगुणा कहते हैं कि उच्च हिमालय क्षेत्रों को निर्माण से दूर रखना चाहिए। बढ़े बांधों के निर्माण से बचना चाहिए।

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