लोकसंगीत सम्राट धुलिया खान के गुजरते ही खत्म हो गया सारंगी युग

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उस्ताद धुलिया खान का जन्म 1893 के आसपास दिल्ली की सीमा से सटे गांव बवाणा के मिरासी परिवार में हुआ। इनके पिता उस्ताद धनवा मीर अपने समय के प्रसिद्ध सारंगी वादक थे।

पं. लखमी चंद तेरह-चौदह वर्ष की आयु में सोहन कुंड़ल वाला के सांग बेड़े में अभिनय एवं सांग की बारीकियां सीखने के क्रम में पहुंचे थे। पं. लखमी चंद, उस्ताद धुलिया खान से पहली बार सोहन कुंड़ल वाला के सांग बेड़े में ही मिले। इस बेड़े में लखमी चंद को सांग में जनाना नृतक और सांग खत्म होने के बाद रसोइए का काम भी करना पड़ता था।

उस्ताद धुलिया खान जो उम्र में लखमी चंद से सात साल बड़े थे, इस बेड़े में सारंगी बजाते थे। लखमीचंद ने सांग मंचन, गायन कला और नृत्य में निपुणता, एक तरह से उस्ताद धुलिया खान के निर्देशन में ही प्राप्त की। उन दोनों की मित्रता भी ठीक उसी तरह की थी जैसे फूल और सुगन्ध की होती है। पं. लखमी चंद से इनका गहरा लगाव था।

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रात को जब सांग बेड़े के लोग खाना खा कर सो जाते, तो लखमीचंद, धुलिया खान के पास जाकर सारंगी पर संगीत सुनने की इच्छा प्रकट करते। धुलिया खान सारंगी बजाते और लखमी चंद घुंघरु बांध कर नाचते। यह उस्ताद धुलिया खान की संगत का ही असर था कि वहां रहकर लखमी चंद ने 6 महीने में ही इतना अच्छा गाना और नाचना सीख लिया।

बाद में जब पं. लखमीचंद ने अपना सांग बेड़ा बना लिया तो वह उस्ताद धुलिया खान को बड़े ही आदर मान के साथ आमंत्रित करके अपने सांग बेड़े में ले आए। जीवन के आखरी पलों तक न केवल मंच पर बल्कि फुरसत के समय में भी संगीतज्ञ और मित्रा दोनों की हैसियत से उन्हें अपने आत्मीय एवं आदरणीय के रूप में साथ रखा।

लखमी चंद जब भी कोई धुन रचते और उस्ताद धुलिया खान से सारंगी के मधुर वादन पर उस धुन को सुनते तो झूम उठते और तब एक ही बात उनकी जुबान से निकला करती – उस्ताद! कमाल कर दिया!

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में पं. लखमीचंद अस्वस्थ रहे, और सांग नहीं कर पा रहे थे। धुलिया खान भी आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र में देहाती प्रोग्राम में नौकरी करने लगे। एक दिन बीमारी की हालत में लखमीचंद उनके पास आए आक्रोश में कहने लगे – उस्ताद यह नौकरी छोड़ दो, जितना इस नौकरी से मिलता है, मैं दे दूंगा।

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Ustad Alla Rakha Khan

लखमी चंद उन पर इतना हक और अपनापन समझते थे कि उन्हें अपनी आंखों से दूर किसी अन्य के अधीन काम करते हुए नहीं देख सकते थे। वैसे भी लखमीचंद को रेडियो की रिकार्डिंग और फोटो खींचने वालों से चिढ़ थी और बनावटी तरीके से उपलब्ध सम्मान उन्हें स्वीकार नहीं था ।

सन् 1970 की वर्षा ऋतु की एक प्रातः उस्ताद धुलिया खान के पुत्र शब्बीर हुसैन ने अपने पिता को नौटंकी सांग की एक धुन ‘‘कहियो रै उस नौटंकी गौरी नै’’ को सारंगी पर बजाते और साथ-ही-साथ रोते देखा। कारण पूछे जाने पर शब्बीर को उत्तर मिला – गाणा बजाणा तो लखमी चंद के साथ था, अब तो रोजी-रोटी के लिए सारंगी उठाणी पड़ती है।

पं. लखमी चंद के सांग बेड़े का वातावरण इतना कलामय था कि उनके साथी कलाकार अपने आप में केवल कलाकार न रहकर एक संस्था बन गए थे। उस्ताद धुलिया खान अपने सारंगी वादन से समां बांधते, इतनी मनमोहक और मधुर धुनें बजाते कि स्वर्गीय उस्ताद शकूर खान और उस्ताद साबरी खान जैसे विख्यात सारंगी वादक भी नतमस्तक होकर इनके संगीत माधुर्य की सराहना और भूरी-भूरी प्रशंसा करते थे और कहते थे कि इनका सारंगी माधुर्य अतुल्य है ।

लोक संगीत के संगीत सम्राट उस्ताद धुलिया खान जैसे कला साधक सुनसान जंगल के सुगन्धित फूलों की तरह नागरिक जीवन की दृष्टि से दूर बने रहते हैं। वर्ष 1928 से 1943 तक वह लखमी चंद के साथ हर रोज हजारों दर्शकों को संगीत से सम्मोहित करते रहे।

लोक संगीत में प्रसिद्ध ‘डोल्ली’ और ‘सोहनी’ दो ऐसी तर्ज हैं, जिनके वह सिद्धहस्त कलाकार थे। आम जनधारणा रही है कि लखमीचंद की डोल्ली का आज तक कोई तोड़ नहीं बन पाया है। इसके पीछे भी उस्ताद धुलिया खान की प्रेरणा लखमीचंद के साथ रही ।

26 नवम्बर 1978 को हरियाणवी लोक संगीत को उंचाईयां देने वाला, लखमीचंद का आजीवन मित्र, दार्शनिक व सांगी जीवन का साथी यह संगीत सितारा हमारी इस दुनिया को अलविदा कह गया। इनकी मृत्यु के साथ ही एक सारंगी युग का भी समापन हो गया।

स्रोतः देस हरियाणा पत्रिका (जनवरी-फरवरी 2016), पेज – 61
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