आज देशभर में दो जयंती का काफी शोर रहा। विश्वकर्मा जयंती और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन। दो जयंती और भी थीं- ठग नटवरलाल की, जिसने ताजमहल तक का सौदा कर दिया था और दूसरे थे पेरियार ईवी रामास्वामी, जिन्होंने देश में जातिवाद के खात्मे के लिए बुनियादी स्तर का आंदोलन चलाया और वंचित वर्ग की आंखें खोल दीं।
आज का खास दिन असल में पेरियार को ही याद करने का था, जिनका कद डॉ. आंबेडकर से कम नहीं था। उन्हीं के डाले बीज हैं, जिनकी बदौलत तमिलनाडु की स्टालिन सरकार एक हद तक सामाजिक बदलाव में योगदान कर पा रही है। महान चिंतक, तर्कवादी, अंधविश्वास विरोधी, समाज सुधारक और लोकतांत्रिक सामाजिक न्याय के प्रणेता ई.वेंकट रामासामी पेरियार का जन्म 17 सितंबर 1879 को और 24 दिसंबर 1973 को निधन हुआ था। फारवर्ड प्रेस नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘ई.वी.रामासामी पेरियार-दर्शन-चिंतन और सच्ची रामायण’ एक बेहतरीन पुस्तक है।
– The Leader Hindi
मनीष आज़ाद-
आधुनिक समय में पेरियार और डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म के ठीक कोर पर हमला बोला था। जहां आंबेडकर ने मुख्यतः वैचारिक ज़मीन से हमला बोला, वहीं पेरियार ने मुख्यतः आंदोलनात्मक ज़मीन से। दोनों का उद्देश्य एक ही था, हिंदू कहे जाने वाले समाज का पूर्ण जनवादीकरण। हिंदू धर्म का जिस तरह का सामाजिक ढांचा था [और है], उसमें ‘सामाजिक अत्याचार’ किसी भी तरह से ‘राजनीतिक अत्याचार’ से कम महत्व नहीं रखता।
डॉ. आंबेडकर की तरह ही पेरियार भी इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि इस सामाजिक अत्याचार की जड़ जाति-व्यवस्था है, जिसे हिंदू धर्म में तमाम ग्रंथों, अनुष्ठानों और तमाम भगवानों द्वारा मान्यता दी गई है और उसका सूत्रीकरण [codification] किया गया है। यानी हिंदू धर्म का मुख्य काम इसी जाति-संरचना को बनाए व बचाए रखना है।
पेरियार मानते थे की हिंदू धर्म एक ऐसा धर्म है जिसकी कोई एक पवित्र किताब नहीं है। कोई एक भगवान् नहीं है, जैसा कि दुनिया के दूसरे धर्मों में है। ना ही इसका कोई उस तरह का इतिहास है, जैसा यहूदी, ईसाई या मुस्लिम धर्म का है। यह एक काल्पनिक विश्वास पर टिका हुआ है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं, शूद्र उनके नीचे होते हैं और बाकी जातियां अछूत होती हैं।
जाति के बारे में डा. अम्बेडकर के प्रसिद्ध ‘श्रेणीबद्ध असमानता’ [graded inequality] को आगे बढ़ाते हुए पेरियार ने इसे आत्मसम्मान से जोड़ा और कहा कि जाति व्यवस्था व्यक्ति के आत्मसम्मान का गला घोंट देती है। उनका ‘सेल्फ रेस्पेक्ट आंदोलन’ इसी विचार से निकला था।
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पेरियार इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि भारत में हिंदू धर्म ‘अफी़म’ नहीं बल्कि ‘ज़हर’ है जो अपनी जाति संरचना के कारण इंसान की इंसानियत का क़त्ल कर देती है। दूसरी तरफ गांधी इस जाति-आधारित धर्म को ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म की तर्ज पर एक मुकम्मल धर्म बनाना चाह रहे थे, यानी एक किताब [गीता] और एक भगवान् [राम], एक प्रार्थना [वैष्णव जन तो…..] वाला धर्म।
यह प्रयास करते हुए वे जाति व्यवस्था को बिल्कुल नहीं छूना चाहते थे। गांधी की इस ज़िद के कारण पेरियार गांधी के प्रति डा. आंबेडकर से भी ज़्यादा कठोर थे।
पूना पैक्ट के दौरान उन्होंने डा. आंबेडकर को संदेश भेजा कि किसी भी क़ीमत पर गांधी के सामने झुकना नहीं है। उनका सीधा कहना था कि गांधी की एक जान से ज्यादा कीमती है करोड़ों दलितों का आत्म-सम्मान। पेरियार ने कांग्रेस और गांधी को शुरू में ही पहचान लिया था। पेरियार ने कांग्रेस के राष्ट्रवाद पर कटाक्ष करते हुए उसे ‘राजनीतिक ब्राह्मणवाद’ कहा था।
जाति-व्यवस्था और उपनिवेशवाद के कारण भारत की अनेक राष्ट्रीयताएं विकसित नहीं हो पाईं बल्कि इसके विपरीत ‘राष्ट्रीयताओं का जेलखाना’ हो गईं। इस तथ्य को पेरियार बखूबी पहचानते थे। 1930-31 में उनकी सोवियत यात्रा ने भी उनकी इस समझ को धार दी।
अलग ‘द्रविड़नाडू’ के लिए उनका आंदोलन वास्तव में तमिल राष्ट्रीयता को जेल से आज़ाद कराने का आंदोलन था। तथाकथित आज़ादी [यह दिलचस्प है की एक ओर जहां कम्युनिस्टों ने 15 अगस्त 1947 को ‘झूठी आज़ादी’ के रूप में इसका बहिष्कार किया, वहीं पेरियार और उनके अनुयायियों ने इस दिन को ‘शोक दिवस’ के रूप में मनाया और काली कमीज व काले झंडे के साथ जगह जगह प्रदर्शन किया।
इसके बाद अलग तमिल राष्ट्र के लिए उनके उग्र आंदोलनों की वजह से ही 1957 में भारत सरकार एक क़ानून लेके आई, जिसके अनुसार अब अलग राष्ट्र की मांग करना देशद्रोह हो गया। इसी के बाद कश्मीर और पूरे उत्तर-पूर्व का जन-आंदोलन आतंकवाद और देशद्रोह बन गया।
महिला मुक्ति के सवालों पर पेरियार के विचार जर्मनी के मशहूर समाजवादी ‘आगस्त बेबेल’ की याद दिलाते हैं। पेरियार महिलाओं की पूर्ण मुक्ति के पक्षधर थे। उनके अनुसार- ”भारत में महिलाएं सभी जगह अछूतो से ज्यादा बुरी दशा और अपमान का जीवन गुजारती हैं।
पश्चिम में 1960 के दशक के अंत में जाकर गर्भ निरोध को महिलाओं की मुक्ति के साथ जोड़ा जाने लगा, जबकि पेरियार काफ़ी पहले ही इसकी बात करने लगे थे। उन्ही के शब्दों में- ‘दूसरे लोग महिलाओं के स्वास्थ्य और परिवार की संपत्ति के केंद्रीयकरण के संदर्भ में ही गर्भ-निरोध की बात करते हैं, लेकिन मैं उसे महिलाओं की मुक्ति से जोड़ कर देखता हूं।’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)