– हरभगवान चावला
अस्सी वर्षीय किसान पतराम दो महीने से राजधानी के बॉर्डर पर दिए जा रहे किसानों के धरने में शामिल था. आज उसकी अठहत्तर वर्ष की पत्नी भतेरी उससे मिलने पहुंची थी. दोनों ने जैसे ही एक-दूसरे को देखा, उनकी चेहरे की झुर्रियों में पानी यूं बह आया, जैसे चट्टानों के बीच झरने बह आए हों. एक नम चट्टान ने पूछा, “कैसे हो सतपाल के बापू?” (Milan: A True Story From the Farmer Movement)
“मैं मज़े में हूं, तू बता, पोता-पोती ठीक हैं?” दूसरी नम चट्टान ने जवाब दिया.
“वहां तो सब ठीक हैं, तुम ठीक नहीं लग रहे हो.”
“मुझे क्या हुआ है? हट्टा-कट्टा तो हूं.”
“दाढ़ी देखी है अपनी? फ़क़ीर जैसे दिख रहे हो.”
“देखो, गाली मत दो. दाढ़ी का क्या है, मुझे कौन सा ब्याह करना है?”
“करके तो देखो, फिर बताती हूं तुम्हें.” भतेरी की आंखों में उतरी तरल लालिमा देख पतराम को अपने ब्याह का दिन बरबस याद आ गया. उसने महसूस किया कि भतेरी के कंधे पर रखा उसका हाथ कांप रहा है.
“अच्छा, अब घर कब लौटोगे?”
“जंग जीतने के बाद ही लौटना होगा अब तो, या फिर शहीद हो जायेगा तुम्हारा बूढ़ा.” भतेरी ने पतराम के मुंह पर हाथ रख दिया.
“अच्छा एक बात बताओ, अगर मैं शहीद हो गया तो तुम क्या करोगी?”
“करना क्या है, तुम्हारा बुत लगवा दूंगी गांव में और शान से रहूंगी जैसे एक शहीद की विधवा रहती है.” कहते ही भतेरी बहुत ज़ोर से हंसी. हंसी के इस हरे पत्थर के पीछे पानी का एक सोता था जो पत्थर के हटते ही आह की तरह फूट पड़ा. भतेरी पानी में तरबतर एक छोटी सी चिड़िया होकर पतराम के सीने में दुबकी थरथरा रही थी. पतराम उसकी पीठ को थपथपाते उसे सांत्वना दे रहा था. अचानक उसने भतेरी को अपने से अलग किया, “अब हट जाओ, देखो लोग हंस रहे हैं.” झटके से अलग होकर दोनों ने देखा-कोई नहीं हंस रहा था, सबके चेहरों पर गर्व और आंखों में आँसू दिपदिपा रहे थे.
(हरभगवान चावला की फेसबुक वाल से साभार)
लेखकीय टिप्पणी : (इस लघुकथा का आधार एक सच्ची घटना है. इसमें प्रयुक्त कल्पना को मेरी असीम श्रद्धा ही मानें. पूरी विनम्रता के साथ इस लघुकथा को मैं उस महान योद्धा दम्पत्ति को सादर नमन करते हुए समर्पित करता हूं.)
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