यह ‘हिंदुत्व का जादू’ है या फिर कुछ और: वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिन्हा का चुनाव नतीजे पर नजरिया

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          Anil Sinha
हालात के समग्र विश्लेषण की जगह सरलीकरण का सहारा लेकर हम उत्तर प्रदेश में 2024 के पूर्वाभ्यास को नहीं समझ सकते हैं। राज्य विधान सभाओं, खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव-नतीजों ने ज्यादा गहराई से यह अंदाजा दिलाया है कि भारतीय लोकतंत्र कहां पहुंच गया है। एक ओर कारपोरेट मीडिया के पत्रकार जश्न मना रहे हैं तो दूसरी ओर साधनहीन पत्रकारों के उस समूह में निराशा फैली है जो कड़ी मेहनत से लोगों के मुद्दे उठाने में लगे थे और धार्मिक या जातिवादी ध्रुवीकरण के विरोध की राजनीति को प्रमुखता दे रहे थे।(View On Election Results)

नतीजों ने उनके इस आशावाद को ध्वस्त कर दिया है कि सांप्रदायिकता पर जनता की तकलीफ के मुद्दे भारी पड़ेंगे। निराशा में वे भी कारपोरेट मीडिया की इस नैरेटिव को ही दोहराने लगे हैं कि हिंदुत्व ने अपनी जड़ें जमा ली हैं और मोदी-योगी का असर लोगों के दिलो-दिमाग पर है। (View On Election Results)

वे यह भी मानने लगे हैं कि आधा पेट अनाज के लाभार्थियों ने वोट के जरिए अपनी कृतज्ञता जाहिर की है। नतीजों के आकलन में मिली विफलता से वे इतने डरे हैं कि भारतीय लोकतंत्र और चुनाव की लगातार विकसित हो रही परंपरा को धाराशायी करने की संघ परिवार की सतत कोशिशों पर बहस करने के बजाए अपने बचाव में लगे हैं कि भाजपा की जीत को वे क्यों नहीं देख पाए।

वे धनबल, प्रशासनबल और सीधे दबंगई के जरिए जनमत के अपहरण को नहीं देख पा रहे हैं। वे उस फासिस्ट मशीनरी पर चर्चा नहीं कर रहे हैं जो लोकतंत्र और चुनाव को अपने शिकंजे में ले चुकी है। यह समझना कठिन नहीं है कि ऐसी स्थिति क्यों है। यह उसी फासिस्ट प्रचारतंत्र का दबाव है जिसे पिछले आठ सालों में मोदी सरकार ने सोशल मीडिया पर सरकारी-कारपोरेट पैसे से तैयार किया है।

यह सच है कि इस प्रचार-तंत्र के जरिए नफरत का एक जहर लोगों के दिमाग में डाला गया है, लेकिन; इसका असर कितना देशव्यापी है यह हम बंगाल से लेकर तमिलनाडु और पंजाब से लेकर महाराष्ट्र तक देख सकते हैं जहां भाजपा को बिना बड़ी ताकत के सत्ता से बेदखल कर दिया गया। लेकिन संघ हिन्दू राष्ट्र बनने के पहले यह भ्रम फैला रहा है कि हिंदुत्व को भारतीयों ने स्वीकार कर लिया है।

सूचनाओं को दबाने, बदलने, गढ़ने और सत्ता के पक्ष में कर देने को लेकर प्रसिद्ध विद्धान नोम चोम्स्की के विचारों को यहां रखना जरूरी है कि किस तरह अमेरिकी कारपोरेट सिर्फ लोगों का मत बदलने का काम नहीं करता बल्कि दुनिया भर में नरसंहार तथा हत्या के कारनामों की साजिश में भी शामिल रहता हैं।

वह बताते हैं कि मानवता के खिलाफ सक्रिय कारपोरेट कैसे लोकतंत्र के नाम पर मुल्कों तथा सभ्यताओें को तबाह कर रहा है। वह यह भी बताते हैं कि कारपोरेट आम अमेरिकी नागरिकों के स्वास्थ्य तथा जीवन के साथ खिलवाड़ करता है। यह सब उस अमेरिकी समाज के बारे में है जिसकी लोकतांत्रिक परंपराओं तथा संस्थाओं से हमारी कोई तुलना नहीं हो सकती है।

वहां गरीबी का यह आलम भी नहीं है कि राशन की थैलियां लेने के लिए दूध पीते बच्चों को गोद में लिए स्त्रियां और बीमार बूढी महिलाएं घंटों लाइन में लगी रहें। वहां यह भी नहीं है कि चोम्स्की जैसे लोगों को देशद्रोही बता दिया जाए और उनके घर पुलिस या किसी एजेंसी का छापा पड़ जाए।

हालात के समग्र विश्लेषण की जगह सरलीकरण का सहारा लेकर हम उत्तर प्रदेश में 2024 के पूर्वाभ्यास को नहीं समझ सकते हैं। आरएसएस तथा भाजपा ने स्वतंत्र विद्वानों को बदनाम कर किनारे फेंक रखा है जो इस तरह के विश्लेषण की क्षमता रखते हैं। उनको अलग कर दिए जाने के बाद यह जिम्मेदारी चैनलों की थी। लेकिन वहां बैठे राजनीतिक विश्लेषक संघ से सीधे जुड़े होते हैं या ऐसे लोग होते हैं जो सत्ता के सामने कभी सच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। इसलिए उस तंत्र पर चर्चा नहीं हो रही है जिसने जनमत का अपहरण किया है।

यह चर्चा नहीं हो रही है कि चुनाव के पूरे ढांचे पर लगातार प्रहार हो रहा है और चुनाव आयोग सत्ताधारी पार्टी के अंग की तरह काम कर रहा है। हमने ऐसा मान लिया है कि चुनाव अब इसी ढांचे में होंगे और इसी के भीतर के चुनावी समीकरणों का जोड़-घटाव करते रहते हैं और बताते हैं कि इस समीकरण के चलते ये चुनाव जीत लिया गया और उस समीकरण के चलते वो चुनाव जीत लिया गया। हम देख नहीं पा रहे हैं कि जीत या हार की घटनाओं का लोकतंत्र के चौतरफा पतन से क्या रिश्ता है। (View On Election Results)

असल में, हमने चुनाव-कानूनों या आचार के सीधे उल्लंघन के कारनामों को सामान्य मान लिया है। हम यह नहीं बता रहे हैं कि मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के पहले के काल में पहुंच गए हैं जब बिहार जैसे प्रदेशों में बूथ कैप्चरिंग आम बात थी। हम नब्बे के दशक के बाद से लगातार बेहतर हो रही चुनाव-प्रकिया के 2014 के बाद से ध्वस्त होते जाने पर बात नहीं कर रहे हैं।

इसे कोई भी देख सकता है कि एक गरीब और अशिक्षित आबादी को प्रचार, पैसा और प्रशासन के संगठित तंत्र के सामने किस तरह असहाय छोड़ दिया गया है। इसके बावजूद उसने अपने परंपरागत विवेक का सहारा लेकर मोदी-शाह की चुनावी मशीनरी को पिछले आठ सालों में कई बार हराया है। यह उत्तर प्रदेश में भी संभव था, लेकिन इस संगठित तंत्र ने उस विपक्ष को ही तोड़ दिया जिसे इस काम में जनता का नेतृत्व करना था।

हमें इस बात पर चर्चा करना जरूरी है कि प्रधानमंत्री मोदी देश के पहले मुखिया हैं जो हर दिन चुनाव-प्रचार में लगे रहते हैं और उनकी मदद के लिए कैबिनेट तथा पार्टी पदाधिकारियों के अलावा कई निजी कंपनियां हैं। इस काम में उनकी मदद के लिए आरएसएस के संगठन तथा शोध संस्थान अलग से हैं। इसका हिसाब कभी नहीं होगा कि इन पर देश का कितना पैसा खर्च हो रहा है। इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है क्योंकि यह एक अपारदर्शी व्यवस्था है।

इसके अलावा पर्दे के पीछे हो रहे कई और खर्चों को भी लोग नहीं जान सकते हैं। हमें सिर्फ सरकारी विज्ञापनों पर होने वाले खर्च का हिसाब मिल सकता है। लेकिन वैक्सीन के प्रमाण-पत्र से लेकर राशन के थैलों पर छपी मोदी की तस्वीरों से इसका मोटा अंदाजा तो लगता ही है। वैसे एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015 से 2020 के बीच चुनावों में केवल विज्ञापन तथा प्रचार पर भाजपा ने आधिकारिक तौर पर दो हजार करोड़ रूपए खर्च किए थे।

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में इस बार सभी पार्टियां मिल कर कुल आठ हजार करोड़ रुपए खर्च का अनुमान एक शोध संस्थान ने लगाया है। जाहिर है कि इसका बड़ा हिस्सा भाजपा खर्च ने किया होगा। इसमें लोगों के बीच बांटे गए पैसे तो नहीं ही शामिल होंगे जिसके वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए थे। (View On Election Results)

उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रचार तो पिछले विधान सभा चुनावों के बाद से ही शुरू हो गया था। प्रधानमंत्री मोदी तथा मुख्यमंत्री योगी ने अयोध्या में दीप जलाने के कार्यक्रमों से लेकर बनारस में गंगा आरती तथा राम मंदिर के शिलान्यास से लेकर कुंभ मेले का उपयोग अपने प्रचार के लिए किया है। ये तमाम आयोजन सरकारी पैसे से होते रहे हैं। सरकारी आयोजनों को किसी खास धर्म से जोड़े जाने की असंवैधानिक कार्य की छूट गैर-भाजपा पार्टियों ने मोदी सरकार को दी है क्योंकि उन्हें डर है कि उनके विरोध से हिंदू नाराज हो जाएंगे। इसका चुनावी इस्तेमाल भाजपा ने बखूबी किया। ऐन चुनाव के वक्त विश्वनाथ कारीडोर का उद्घाटन इसी का हिस्सा था।

चुनाव-प्रचार के दौरान सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने और बिना तथ्य के प्रतिस्पर्धी पार्टी को आतंकवाद तथा दंगा करने वालों से जोड़ने के बयानों पर चुनाव आयोग ने कभी कोई जवाब नहीं मांगा। यह जन प्रतिनिधित्व कानून का सीधा उल्लंघन था। इस निचले स्तर के प्रचार अभियान में मीडिया ने भी मदद की। चैनलों पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाले विषयों और खबरों तथा भाजपा के लिए अनुकूल बहस तो सालों भर चलती ही रहती हैं।

सोशल मीडिया पर चलने वाले अभियान भी हैं ही जो यूट्यूब से लेकर लेकर फेसबुक पर चलते रहते हैं। इसके अलावा ऐन चुनाव के समय धर्म-संसद और हिजाब के विवाद आ जाते हैं। एनआरसी, तीन तलाक, लव जिहाद और गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग जैसे लगातार चलते कार्यक्रम चुनाव प्रचार के हिस्सा हैं।

चुनाव में सभी बराबरी से भाग ले सकें, इसके लिए पेड न्यूज रोकने तथा चैनलों पर सभी को बराबर जगह मिलने को लेकर चुनाव आयोग ने समय-समय पर कई तरह के उपाय किए हैं। लेकिन चैनलों पर भाजपा के कार्यक्रमों के कवरेज की तुलना में बाकी पार्टियों का कवरेज नगण्य और नकारात्मक है।

दिलचस्प तो यह है कि कई चरणों में चुनाव का अर्थ तब समझ में आता है जब एक चरण का चुनाव चल रहा होता है और दूसरे चरण के प्रचार के लाइव प्रसारण के बहाने प्रधानमंत्री मोदी पहले वाले चरण के मतदाताओं को संबोधित कर रहे होते हैं। यहां तक कि चुनाव के ठीक पहले उनका या योगी जैसे किसी नेता का इंटरव्यू चल रहा होता है।

यह बात मीडिया में कभी नहीं आती है कि किस तरह हर चुनाव में भाजपा प्रचार के लिए पेड वर्कर्स की टीम अलग से बहाल करती है। संघ परिवार के पास अनगिनत संगठनों का एक जाल है, उसके कार्यकर्ता तो काम पर होते ही हैं। मतदान को प्रभावित करने की इस संगठित मशीनरी को भारत जैसे मुल्क में होना चाहिए या नहीं, इस पर बहस करने के बदले मीडिया ने अमित शाह के बूथ मैनेजमेंट के कसीदे पढ़े हैं।

उत्तर प्रदेश के चुनावों में नियमों की धज्जियां किस तरह उड़ी हैं, इसका बेहतरीन उदाहरण है एक पुलिस कमिश्नर का चुनाव प्रक्रिया के बीच इस्तीफा देना और चुनाव लड़ना। इसी तरह का काम है ईडी के ज्वाइंट कमिश्नर राजेश्वर सिंह का चुनाव लड़ना। चुनाव के ठीक पहले समाजवादी पार्टी से संबंधित लोगों के यहां ईडी के छापों के बाद चुनाव लड़ने की उनके कदम को आयोग किस तरह स्वीकार कर सकता है? (View On Election Results)

क्या बनारस और दूसरी जगहों पर ईवीएम को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में प्रोटोकाल के उल्लंघन की घटना और गुजरात पुलिस के सिपाही के वीडियो से यह साफ नहीं हो जाता है कि आयोग को निष्पक्ष चुनाव कराने में कोई दिलचस्पी नहीं थी?

पक्षपाती चुनावी मशीनरी, धनबल और सड़कों से लेकर गलियों तक सिर्फ मोदी और योगी की काल्पनिक तथा वास्तविक उपस्थिति को हम हिंदुत्व का असर मान कर करोड़ों लोगों के हिंदुत्ववादी हो जाने या इतने लाचार होने की कल्पना न करें जो आधे पेट अनाज की थैलियों के कारण एक निकम्मी सरकार को चुन ले जिसने कोरेाना के समय उन्हें बेसहारा छोड़ दिया हो।

लेकिन उस विपक्ष का क्या करें जिसने भाजपा को सत्ता दिलाई है? समाजवादी पार्टी के मुखिया साढ़े चार साल तक अनमने ढंग से प्रतिरोध करते रहे और बहुजन समाज पार्टी नेता मायावती ने लगातार विपक्ष पर ही हमला किया तथा अपनी छवि भाजपा की बी टीम वाली बनाती रहीं। उन्होंने वैसे उम्मीदवार दिए जो समाजवादी पार्टी को ही हराएं। ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने वोटों का ट्रांसफर भी भाजपा के पक्ष में कराया।

इस सच्चाई पर हम बात नहीं करना चाहते हैं कि ये दोनों ही बातें महज संयोग नहीं थीं। इसमें ईडी और केंद्रीय एजेंसियों का भी हाथ था। भ्रष्टाचार और अवसरवाद के कारण पर्दे के पीछे के हो रहे समझौतों तथा दबाव को सामने लाने के बदले हम उसी नैरेटिव को सामने लाते हैं जो संघ परिवार चाहता है कि मोदी-योगी लोकप्रिय चेहरे हैं और हिंदुत्व ने लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है। (View On Election Results)

हम शायर हबीब जालिब की तरह यह नहीं कह पाते कि—

इस खुले झूठ को

ज़ेहन की लूट को

मैं नहीं मानता

मैं नहीं जानता

(साभार: यह लेख मूलरूप में न्यूजक्लिक वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है, यह लेखक के निजी विचार हैं)


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