
सिनेमा की पहचान होती है लेकिन उसके गानों की पहचान सिनेमा से स्वायत्त होती है. लोग सिनेमा को भूल जाते हैं लेकिन उन गानों में अपनी यादों और भाव का प्लाट जोड़ कर अपना अपना सिनेमा बना लेते हैं. गाने की स्मृति सामूहिक भी होती है और नितांत व्यक्तिगत भी. (From Ravish Kumar’s Facebook Page)
हिन्दी सिनेमा के रचनाकारों ने इसे पहले ही जान लिया था. एक गाना जब गाया जाता है तब वह सुने जाने वालो के एकांत में अलग अलग तरह से बजता है. 1969 की फ़िल्म का यह गाना है. स्टुडियो में रिकार्डिंग हो रही है और बाहर टैक्सी में वहीदा रहमान सुन रही हैं. उनके चेहरे पर गाने से बोल पसरे हुए हैं और वे उसके भावों में डूबी हुई हैं. कैमरा टैक्सी के भीतर उन्हें बिल्कुल अकेले के स्पेस में पकड़ता है. जैसे वो अकेली हैं या अपने आप में खो चुकी हैं. कोई दूसरा नहीं है. एक शॉट में बांबे की रात है और ख़ाली सड़क .
उसी तरह से अभिमान में आप देखते हैं कि जया भादुड़ी हा रही हैं. स्टुडियो की रिकार्डिंग अलग से दिखाई जा रही है मगर साथ में वह गाना कैसे सुना जा रहा है इसके लिए दो अलग अलग घरों के शाट हैं. एक में अमिताभ तनाव में है. पत्नी की गायकी की लोकप्रियता से कुंठित और साथ में बिन्दू हैं. एक दूसरी स्त्री की मौजूदगी के रूप में. दूसरे घर में असरानी अकेले सुन रहे हैं.
जब दूरदर्शन आता है तब रेडियो की जगह टीवी स्टुडियो दिखाया जाता है. 1984 में आई सनी फ़िल्म का गाना याद होगा. जाने क्या बात है, पहली लाइन के साथ सनी देओल होटल में प्रवेश करते हैं और यह गाना बजता है. अमृता टीवी पर गा रही हैं. अब टीवी का स्टुडियो दिखाया जा रहा है. मुझे नहीं पता इसके पहले के किसी गाने में टीवी स्टुडियो की रिकार्डिंग है या नहीं लेकिन 1982 के एशियाड खेलों के बाद शायद इसका असर फ़िल्मों में पहुँचा होगा.
हिन्दी फ़िल्म संसार ने फ़िल्म के भीतर लोकेशन पर फ़िल्म के शूट होने की प्रक्रिया को कम दिखाया है लेकिन गाने कैसे बनते हैं और ख़ासकर सुने जाते हैं इसे खूब दिखाया है. गाने और गाने वाले की लोकप्रियता का भाव कई फ़िल्मों में आता है. बल्कि उन फ़िल्मों में जो फ़िल्मी स्टार है वो गाने वाला है.
गायक है. सिनेमा के भीतर के संसार का लोकप्रिय नायक तो गायक ही है.
(रवीश कुमार के फेसबुक पेज से साभार) From Ravish Kumar’s Facebook page
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