उत्तराखण्ड में दलित उत्पीड़न

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Dalit oppression in Uttarakhand

आम जन में ही नहीं देश-विदेश के बुद्धिजीवियों तक में यह धारणा बनी हुई है कि उत्तराखण्ड में दलित उत्पीड़न नहीं है, है भी तो न के बराबर. माना जाता है कि उत्तराखण्ड देवभूमि है, सामाजिक समरसता, सह्रदयता, निश्छलता व निष्कपटता इस राज्य के सामाजिक ताने-बाने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. इन लोकलुभावने विशेषणों तले उत्तराखण्ड की दलित जातियों की अकथनीय दुःख व पीड़ाएं गुम हो जाती हैं या दबा दी जाती हैं. (Dalit oppression in Uttarakhand)

उत्तराखण्ड में दलित उत्पीड़न देश के अन्य हिस्सों जैसा ही है, जरा भी कम नहीं. लेकिन यह लोकप्रिय विशेषणों की एक मोटी परत के नीचे दबा-छिपा रहता है, दिखाई नहीं देता. इसके अदृश्य हो जाने की कई वजहें हैं. जिसका मुख्य कारण राज्य की जातीय संरचना में है. उत्तराखण्ड देश के उन राज्यों में है जहाँ आबादी में दलितों, पिछड़ों, जनजातियों का प्रतिशत काफी कम है, एक मोटे अनुमान के अनुसार यह 21 प्रतिशत के आसपास है. इसमें भी दलितों का प्रतिशत 18 के आसपास ही है. यही नहीं राज्य में मझोली जातियों की आबादी भी बहुत कम है. कुल मिलाकर राज्य में सवर्ण आबादी का लगभग 85 प्रतिशत तक हैं और इनमें ठाकुरों की संख्या ज्यादा है. लिहाजा उत्तराखण्ड के दलित विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में एकछत्र वर्चस्व जमाए बैठे सवर्णों के सामने हमेशा कमर टेढ़ी किये रहते हैं. वे हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी विधानों को चुनौती देना तो दूर उसकी मुखालफत तक नहीं करते. इस वजह से ऐसे तीक्षण टकराव होते ही नहीं जो मुखरता के साथ दिखाई पढ़ें. यदि ऐसे टकराव होते भी हैं तो वे शासन-प्रशासन से लेकर प्रचार माध्यमों तक में कब्ज़ा जमाए बैठे सवर्णों द्वारा सामने नहीं आने दिए जाते.

मसलन उत्तराखण्ड के दलितों की ज्यादातर आबादी भूमिहीन है. अब अगर कुछ दलित सामाजिक उन्नयन के कार्यक्रमों का लाभ उठाकर इस स्थिति में पहुंच भी जाते हैं कि अपने लिए थोड़ा जमीन ले सकें तो सवर्ण उन्हें जमीनें नहीं बेचते. अधिकांश बिल्डर दलितों को घर बनाने के लिए जमीनें नहीं देते. किसी को भी जमीन या घर बेचने से पहले बिल्डर यह शर्त रखते हैं कि भविष्य में इसे दलित या मुस्लिम को न बेचा जाये. विकसित शहरों तक में सवर्ण दलितों को किराये पर घर नहीं दिया करते. लिहाजा प्रदेश के ज्यादातर दलित ‘अनधिकृत’ कालोनियों में घर बनाने को विवश हो जाते हैं. हैरानी की बात नहीं कि अधिकृत और अनधिकृत दलित बस्तियां प्राथमिक सुविधाओं तक से वंचित हैं. इनमें और सवर्ण बसासतों के बीच मूलभूत सुविधाओं के गैप को आसानी से देखा जा सकता है.

16 अगस्त को उत्तराखण्ड में नैनीताल जिले के आद्योगिक कस्बे लालकुआं में एक दलित, विजय टम्टा, को अपनी जमीन पर घर बनाने से रोक दिया गया. रोकने वाली ब्राह्मण महिला गुड्डी पाण्डे ने इस दौरान जमकर जातिसूचक शब्द कहे और दलित परिवार पर हमला करने तक की कोशिश की. गुड्डी का कहना था कि वे पहले भी ‘हरिजनों’ को अपने पड़ोस में घर बनाने से रोकती रही हैं और इस दफा भी वे ऐसा नहीं करने देंगी. पीड़ित परिवार द्वारा इस समूचे घटनाक्रम का वीडियो बना लिया गया, जो कि सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इसके बाद नैनीताल जिले के दलितों में आक्रोश फूट पड़ा और जगह-जगह प्रदर्शन भी हुए. इन प्रदर्शनों के दबाव में गुड्डी पाण्डे के खिलाफ पुलिस ने अगली शाम मुकदमा तो कायम कर लिया लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं की. अभियुक्त की गिरफ़्तारी करने के बजाय उलटे पुलिस अफसरों ने घटना का वीडियो प्रचारित करने वालों को अखबार में बयान देकर कार्रवाई की धमकी तक दे डाली. संवैधानिक प्रावधानों को धता बताते हुए जब गुड्डी की गिरफ्तारी नहीं हुई तो पीड़ित परिवार को न्यायालय की शरण में जाना पड़ा. गौरतलब है इससे पहले भी नैनीताल जिला हाल ही में तब सुर्ख़ियों में आया था जब इसी साल मई में ओखलकांडा ब्लॉक के बुमका गांव में बने क्वारंटाइन सेंटर में सवर्ण युवकों ने दलित भोजनमाता की हाथ से बना खाना खाने से इन्कार कर दिया था. ये दोनों ही मामले मीडिया तक में इसलिए जगह बना सके कि इनमें पुलिस को मजबूरन एफआइआर दर्ज करनी पड़ी. उत्तराखण्ड के सभी मीडिया संस्थान दलित उत्पीड़न की घटनाओं को तभी कवरेज देते हैं जबकि मुकदमा कायम हो जाये. इसमें भी मामले को दबाने की पूरी कोशिश की जाती है.

उत्तराखण्ड के हजारों मंदिरों में दलितों का प्रवेश वर्जित है. यहाँ तक की चमड़े के वाद्य बजाने वाले दलित साजिंदों को पूजा पद्धतियों में तो अनिवार्यतः शामिल किया जाता है लेकिन गर्भगृह में प्रवेश नहीं दिया जाता. इतना ही नहीं अनुष्ठान ख़त्म हो जाने के तत्काल बाद उनके लिए विशेष तौर पर अलग से बिछाए गए टाट पर उन्हें बैठा दिया जाता है, वहीँ उन्हें प्रसादरूपी भोजन परोसा जाता है. 2016 में गढ़वाल के ही एक गांव में ‘उच्च जाति’ की भीड़ ने सार्वजनिक तौर पर भाजपा के राज्य सभा सांसद तरुण विजय पर इसलिए हमला किया था क्योंकि वह गांव के दलितों को गांव के मंदिर में प्रवेश दिलाने का समर्थन कर रहे थे.

2016 में ही बागेश्वर जिले के एक गांव में सवर्ण शिक्षक ने एक दलित का सिर धड़ से इसलिए काट दिया क्योंकि उसने आटे की चक्की को छूकर उसे ‘अपवित्र’ कर दिया. पिछले साल अप्रैल में गढ़वाल मंडल के श्रीकोट जिले के विवाह समारोह में शामिल एक दलित युवक जितेन्द्र दास की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गयी कि उसने सवर्णों के सामने कुर्सी मैं बैठकर खाना खाने की हिमाकत की थी. 1980 के कफल्टा काण्ड की दर्दनाक दास्ताँ को उत्तराखण्ड के दलित आज भी नहीं भूल पाते, जब बारात ले जा रहे 14 दलित बारातियों को अल्मोड़ा जिला के कफल्टा गाँव के सवर्णों ने सिर्फ इसलिए ज़िंदा जला दिया था कि वे नहीं चाहते थे कि गांव के बीच से दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर गुजरे.

ये कुछ प्रतिनिधिक घटनाएँ हैं जो विशेष वजहों से सुर्ख़ियां बन पायीं. अन्यथा सामाजिक उत्पीड़न का यह ताना-बाना बेधड़क चलता रहता है.

आबादी का बेहद छोटा हिस्सा होने की वजह से उत्तराखण्ड के दलित चुनावी गणित में भी ज्यादा अहमियत नहीं रखते. यूं ही नहीं है कि राज्य के कॉलेजों में छात्र संघ चुनावों में महत्वपूर्ण पदों पर एक भी दलित नहीं जीतता. प्रमुख राजनीतिक दलों के स्टूडेंट विंग गलती से भी दलितों को उमीदवार नहीं बनाते. अपवादस्वरूप कुछ कॉलेजों में गाहे-बगाहे सबसे निचले पदों पर ही दलित छात्र जीत पाते हैं. राज्य की 5 लोकसभा सीटों में से एक अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है और 70 विधानसभा सीटों में से 13 अनुसूचित जाति और 2 अनुसूचित जनजाति के प्रत्याशियों के लिए आरक्षित हैं. इन सीटों के अलावा अन्य पर हमेशा ही सवर्ण जाति के उम्मीदवार टिकट पाते और जीतते हैं.

एक राज्य जिसका निर्माण ही मंडल कमीशन के बाद के आरक्षण विरोधी आन्दोलन की पैदाइश हो वहां दलित उत्पीड़न के न होने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है. उत्तराखण्ड आन्दोलन का सर्वाधिक लोकप्रिय नारा था — मंद-मंद मुस्काते हो, क्या आरक्षण में आते हो.

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