-मनीष आज़ाद
प्रसिद्ध इतिहासकार कपिल कुमार ने अवध किसान आंदोलन के किसी दौर का जिक्र करते हुए यह रोचक जानकारी दी कि आंदोलन स्थल पर ही किसान अपनी अपनी जाति के हिसाब से अलग अलग सामूहिक खाना बनाते थे. यानी अपने जाति अंतर्विरोधों को बनाये रखते हुए अपने साझा शत्रु यानी अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ लामबंद थे. (Current Farmer Movement and Dalit Question)
वर्तमान किसान आंदोलन को भी सभी जातियों का समर्थन प्राप्त है. जाति संरचना में सबसे निचली पायदान पर स्थित दलित भी इस आंदोलन के पक्ष में है. लेकिन क्या यह सही समय नहीं है कि हम किसान समुदाय के बीच के जातीय व वर्गीय मुद्दों को सामने लाएं और आंदोलन की जड़ों को और गहरा बनाने का प्रयास करें. इस किसान आंदोलन की एक महत्वपूर्ण सफलता यह है कि इस आंदोलन के कारण खेती-किसानी के संकट पर जितनी बाते इस समय हो रही है, शायद ही पहले कभी हुई हो.
पंजाब का दलित संगठन ‘जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति’ इस आंदोलन का हिस्सा है और उसकी इस मांग पर वर्तमान किसान आंदोलन के नेतृत्व को गौर करना चाहिए कि नेतृत्व में दलित संगठनों को प्रतिनिधित्व देने से और उनकी कुछ सीमित मांगो को आंदोलन से जोड़ने पर दलितों की इस आंदोलन में हिस्सेदारी गुणात्मक रूप से बढ़ जाएगी. इसके असर की कल्पना आप इसी बात से कर सकते हैं कि पंजाब में दलित आबादी 32 प्रतिशत के आसपास है. जबकि उनके पास महज 3.2 प्रतिशत जमीन है. वहीं हरियाणा में दलित आबादी 20 प्रतिशत है, जबकि खेती की जमीन उनके पास महज 2 प्रतिशत है. यानी लगभग सभी दलित भूमिहीन है. कमोवेश ऐसी ही स्थिति पूरे देश की है.
पंजाब में ‘जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति’ पंचायत जमीन पर दलितों के हक के लिए लड़ रहा है. यानी जो अधिकार उसे कानूनन मिले हुए है, उस पर कब्जे के लिए उसे कठिन संघर्ष करना पड़ रहा है. 1961 में पारित एक कानून के मुताबिक पंचायत जमीन का 33 प्रतिशत वहाँ के दलितों के लिए आरक्षित है. लेकिन लगभग सभी गांवों में जाट सिख पंचायत जमीन से एक इंच भी जमीन दलितों को नहीं देते. इसके लिए वे सभी तरह के हथकंडे अपनाते है. हरियाणा में भी कमोवेश ऐसी ही स्थिति है. कल्पना कीजिये यदि इस आंदोलन में नेतृत्व यह ऐलान कर दे कि दलितों को पंचायत जमीन में उनका वाजिब हक़ दिया जाएगा तो दलित इस आंदोलन में उत्साहपूर्वक कूद जाएगा और आंदोलन की जड़ें काफी गहरी हो जाएगी. खेती के संकट में जमीन का सवाल एक क्रांतिकारी सवाल है. पंजाब और हरियाणा में भी जमीन का सवाल एक बड़ा सवाल है. यदि हम जाति के संदर्भ में देखे तो हरियाणा में 24 प्रतिशत जाट किसानों के पास कुल 86 प्रतिशत जमीन है, जबकि 20 प्रतिशत दलितों के पास महज 2 प्रतिशत. वहीं अगर पंजाब की बात करें तो हरित क्रांति के कारण पंजाब इस वक़्त जमीन वितरण के मामले में भारत का सबसे असमानता वाला समाज है. यह असमानता जाति और वर्ग दोनो स्तर पर दिखती है. यहां तक कि गांव के गुरुद्वारे में भी यह जातीय असमानता साफ़ नज़र आती है. आर्थिक आंकड़ों में कहें तो यहाँ का गिनी-कोएफिशिएंट 0.82 है, जबकि पूरे भारत मे यह 0.75 है. (गिनी-कोएफिशिएंट 0 का मतलब पूर्ण समानता और 1 का मतलब पूर्ण असमानता). जाहिर है, कृषि संकट के केंद्र में अभी भी जमीन का सवाल है, और दलित संकट के केंद्र में भी जमीन ही है.
कोरोना काल मे जब बिहार उत्तर प्रदेश के किसान वापस लौट रहे थे, तो पंजाब- हरियाणा के जाट पंचायतों ने वहाँ के दलितों को पुरानी मजदूरी पर उनके खेतों में काम करने के लिए बाध्य कर दिया था और दलितों के बहिष्कार की धमकी दी थी. वह घाव भी अभी हरा है. बावजूद इसके उनका पूरा समर्थन इस आंदोलन को है.
दरअसल यह आंदोलन कृषि के अंदरूनी वर्ग-अंतर्विरोधों पर न होकर कृषि बनाम साम्राज्यवादी-दलाल पूंजी के अंतर्विरोध पर है. लेकिन आंदोलन की आग में जाति की बेड़ियों को पिघलाना अपेक्षाकृत आसान होता है. राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हमने यह मौका बार-बार गवांया है. आज यदि आंदोलन की रीढ़ छोटे और मध्यम जाट सिख व जाट अपना हृदय बड़ा करके दलित मुद्दे को इस आंदोलन से जोड़ पाते हैं, और कम से कम सार्वजनिक जमीन पर दलितों के कानूनी हक पर अपने स्वामित्व को छोड़ने का एलान कर देते है तो यह आंदोलन समाज के जनवादीकरण की जमीन तैयार करने वाला एक ऐतिहासिक आंदोलन साबित होगा और वर्तमान आंदोलन की जड़ें इतनी गहरी हो जाएंगी कि इस सत्ता के लिए उसे उखाड़ फेंकना असंभव हो जाएगा.
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