रजनी जे
उत्तराखंड में नव चेतना का दिन है 26 मार्च। वनाधिकार के लिए हुए 1973 के चिपको आंदोलन में ही पृथक राज्य आंदोलन के बीज थे। कई कलेवर, कई पड़ाव और कुर्बानियों के बाद 2000 में बने उत्तराखंड राज्य में जनता का पहला सरोकार आज भी यहां के वन और प्राकृतिक संपदा ही है। (Chipko Movement Himalayan Pain)
26 मार्च 1973 को शुरू हुआ चिपको आंदोलन एक ऐसा आंदोलन था, जिसने केंद्र सरकार को झुकने के लिए मजबूर किया। इसके बाद सरकार ने न सिर्फ वनों की रक्षा के लिए कानून बनाया, बल्कि पर्यावरण मंत्रालय का भी गठन भी इसी आंदोलन की परिणीति है। देश ही नहीं ऑस्ट्रेलीया तक के लोगों ने आंदोलन के इस रूप को अपनाया। उत्तराखंड के रूप में यहां के जन और प्रकृति के अनुकूल अलग राज्य की मांग भी इसी आंदोलन का विस्तार था।
उत्तराखंड तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। चमोली जिले के रैणी गांव की महिलाओं ने ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की कटाई के विरोध में पेड़ों को अपनी बाहों से घेर लिया था। गांव की सामान्य महिला गौर देवी सबका नेतृत्व कर रही थी।
महिलाएं ठेकेदार के लोगों को समझा रही थी कि पेड़ उनके जीवन का आधार हैं।
काटना ही है तो पेड़ों के साथ हमें भी काट दिया जाए। बिना हिंसा और उपद्रव के चले इस आंदोलन से न सिर्फ ठेकेदार पसीज गए बल्कि चालाकी से गांव के पुरुषों को जिला मुख्यालय बुलाने वाले अफसर भी सकते में आ गए थे।
चमोली से शुरू हुआ चिपको आंदोलन धीरे-धीरे पूरे उत्तराखंड में फैल गया। 1978 का नैनीताल क्लब अग्निकांड इसी आंदोलन से प्रेरित था। 1973 से ही उत्तराखंड के तमाम कॉलेज और विश्विद्यालयों में छात्र संगठित हो रहे थे। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट दुनिया में चिपको आंदोलन का चेहरा बने। हर जगह नारे गूंजते थे-
“क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।“
पहाड़ के कबीर गिरीश तिवारी गिर्दा ने अपने हिंदी और कुमाऊनी गीतों से सुर दिए तो गढ़वाल में नरेंद्र सिंह जैसे लोकगायक और कवि आंदोलन को सुर दे रहे थे।
धीरे-धीरे यह आंदोलन और राज्यों में भी फैलने लगा और बाद यह आंदोलन बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और मध्य भारत के विंध्य तक फैल गया। बड़ी संख्या में लोगों ने पेड़ों से चिपक कर वनों की रक्षा के लिए आंदोलन की भूमिका निभाई। (Chipko Movement Himalayan Pain)
आंदोलन ने देश में पर्यावरण रक्षा को एक बड़ा मुद्दा बना दिया और इस आंदोलन को बड़ी सफलता तब मिली जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालय के वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 वर्षों तक प्रतिबंध लगा दिया था।
सन् 1989 में इस आंदोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
केंद्र सरकार को सन् 1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित कर कानून बनाना पड़ा। इतना ही नहीं, पर्यावरण मंत्रालय का गठन हुआ। पहाड़ी प्रदेश के संसाधनों का सीमित दोहन हो, संरक्षण हो और यहां के विकास में स्थानीय लोगों की राय हो यही पृथक राज्य आंदोलन का भी आधार था। (Chipko Movement Himalayan Pain)
यह आंदोलन हिमालय क्षेत्र के लिए पर्यावरण संवेदनशीलता को जगाने का प्रतीक भी बना। हिमालय के इस क्षेत्र में भूस्खलन, भूकंप, बाढ़ आदि से भारी नुकसान होते रहे हैं जो आंदोलन के 47 साल बाद भी देखने को मिल रहे हैं।
नदियों पर बिना हिमालय की चिंता कर बन रहे बांध हों या पहाड़ को बुरी तरह काट कर बन रही सड़कें हिमालय के लोग इस कथित विकास के खिलाफ सड़क से सुप्रीम कोर्ट तक में जाकर लड़ रहे हैं। पहाड़ की इन चेतावनियों की अनदेखी तो ताज़ा नतीजा दुनिया ने ऋषि गंगा की बाढ़ के रूप में देखा।