हरेन्द्र श्रीवास्तव
उत्तराखंड में ग्लेशियर के विखंडन से जो विनाशकारी आपदा आयी है उससे हिमालय पर्वत श्रृंखला के भू-वैज्ञानिक पर्यावरणीय क्षेत्र में असंतुलन का ही संकेत मिलता है। भूवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि हिमालय के कई हिमनद समाप्ति के कगार पर हैं और कई हिमनद अपना अस्तित्व खो चुके हैं।
पृथ्वी एक सक्रिय ग्रह है जिससे इसके सतह एवं भूगर्भ में प्राकृतिक रूप से अनेकों भौगोलिक बदलाव होते रहते हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और प्राकृतिक घटनाओं का क्रम सतत जारी रहता है जिसके परिणामस्वरूप हिमस्खलन जैसी घटनाएँ घटनी स्वाभाविक हैं, लेकिन पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से हिमालयी राज्यों में कुदरती आपदाओं की बारम्बारता बढ़ी है उससे यही पता चलता है कि मानव का प्रकृति-संचालन में हस्तक्षेप अनुचित रूप से बढ़ा है जिसका खामियाजा आज हम सभी भुगत रहें हैं।
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हिमालय पहाड़ के प्राकृतिक ढांचे में परिवर्तन कर वहां लगातार कई वर्षों से बनाये जा रहे मानव निर्मित कृत्रिम बुनियादी ढांचे जैसे सड़क, पुल, बांध, हाइड्रो-इलेक्ट्रिक संयत्र आदि संरचनाओं ने हिमालयी पर्वतमाला पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव डाला है। मैदानी इलाकों का विनाश कर मनुष्य अब पहाड़ों की ओर पलायन कर रहा है। हिमाच्छादित चोटियों पर बढ़ते पर्वतारोहण जैसी मानवीय दखलअंदाजी के चलते हिमालय की नैसर्गिक गतिविधियां बेहद बुरी तरह से प्रभावित हुईं हैं।
शायद इन्हीं सब का दुष्परिणाम है कि देश के उत्तराखंड प्रान्त के सीमान्त जिले चमोली में नंदा देवी पर्वत-श्रृंखला के हिमनद के विखंडित होकर तेजी से पिघलने के कारण आये जल-प्रलय में अनेकों गांव-घर-मानव-वन्यप्राणी बह गये। ग्लेशियर पिघलाव से उत्पन्न असंख्य जल-बूंदो से ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदी में अकस्मात बढ़े पानी के उफान ने कई निर्माणाधीन विद्युत पावर प्लांटों और पुलों को तबाह कर दिया।
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भू-वैज्ञानिक साक्ष्यों से विदित है कि हिमालय पर्वत अत्यन्त युवा पर्वत है जिसका जियोलाजिकली निर्माण वर्तमान समय में भी नैसर्गिक रुप से सतत जारी है। भूकम्प के दृष्टिकोण से अत्यन्त संवेदनशील हिमालय पर्वत-श्रृंखला की गोद में बसे भारत और नेपाल के अनेकों गांव, नगर, प्रान्त प्रतिवर्ष भूगर्भीय हलचलों का सामना करते हैं और आने वाले वर्षों में भी करते रहेंगे क्योंकि हिमालय की यही भू-वैज्ञानिक प्रवृति है।
ग्लेशियर प्रकृति प्रदत्त अत्यन्त बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन हैं। हिमालय क्षेत्र में विद्यमान लाखों छोटे-बड़े हिमनद मानव सहित प्रकृति के अनेकों प्राणियों को पीने का पानी तथा उद्योग-धंधों, बिजली और कृषि कार्य हेतु विशाल जलराशि उपलब्ध करवाते हैं लेकिन आज हिमालय से लेकर ध्रुवीय प्रदेशों तक के कई हिमनदों पर संकट गहरा गया है।
दरअसल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बढ़ते तापमान के दुष्प्रभावों के चलते धरती के सबसे बड़े द्वीप ग्रीनलैंड और धरती के पांचवे बड़े महाद्वीप अंटार्कटिका में मौजूद ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना जारी है।
द क्रायोस्फीयर जर्नल में प्रकाशित शोध के अनुसार सन् 1994 से लेकर 2017 तक की अवधि में पृथ्वी ग्रह की 28 ट्रिलियन बर्फ समाप्त हो चुकी है जो कि अत्यन्त चिंताजनक है। देश के उत्तराखण्ड, कश्मीर-लद्दाख, हिमाचल प्रदेश राज्यों की हिमालयी पर्वतश्रेणियों में हजारों की संख्या में हिमनद मौजूद हैं।
हम अगर इसी तरह भौतिक विकास और लालचवश हिमालय की कुदरती प्रक्रिया में बाधा डालते रहे तो आगे आने वाले समय में हम सभी को अत्यन्त भयावह प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। अतः बेहद जरूरी है कि हम सब एकजुट होकर पहाड़ों, ग्लेशियरों, नदियों और वनों के संरक्षण में अपनी सहभागिता निभायें क्योंकि पर्यावरण के ये तत्व ही धरती पर समस्त जीव-जगत का मूलाधार हैं।
ग्लेशियरों के वैज्ञानिक अध्ययन तथा प्राकृतिक महत्व को भलीभांति समझकर ही मानव-प्रजाति प्रकृति में अपना वजूद कायम रख सकती है। निश्चित रूप से हिमालयी नदियों के निरन्तर मार्ग परिवर्तन, हिमालय पर्वत में घटते भूस्खलन-हिमस्खलन और हाल ही में हिमालय में घटी हिमखंडन जैसी आपदा हमें पर्यावरण के प्रति गंभीर और सचेत रहने का संदेश देती है।
(लेखक प्रकृतिवादी हैं, यह उनके निजी विचार हैं, साभार)