मनीष आज़ाद-
13 अगस्त 2004 को दोपहर के 3 बजे नागपुर कोर्ट में कस्तूरबा नगर दलित बस्ती की करीब 200 महिलाओं ने एक बलात्कारी अक्कू यादव को उस समय मौत के घाट उतार दिया, जब उसे इन्हीं आरोपों में पेशी पर लाया जा रहा था। महिलाओं ने सिर्फ लाल मिर्च पाउडर और रसोई की चाकू का इस्तेमाल किया था। अक्कू यादव के शरीर पर कुल 70 घाव थे। उसका लिंग भी काट दिया गया था।
उस वक़्त यह घटना देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी चर्चित हुई थी। ‘गार्डियन’ ने इस पर एक लंबी स्टोरी की थी। सार्थक दासगुप्ता की फ़िल्म ‘200 हल्ला हो’ इसी विषय पर केंद्रित है। फ़िल्म की शुरुआत में ही वह इसका ऐलान भी कर देती है।
फ़िल्म का सबसे ताकतवर चरित्र हाईकोर्ट का रिटायर्ड दलित जज विठ्ठल डांगले (अमोल पालेकर) है। पहले उपरोक्त घटना की ‘फैक्ट फाइंडिंग’ में शामिल होकर और बाद में ‘बल्ली चौधरी’ की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा काट रही बस्ती की पांच दलित महिलाओं को छुड़ाने के लिए वकील की भूमिका निभाते हुए विठ्ठल डांगले अपनी खुद की दलित पहचान को वापस पाता है। फ़िल्म का यह पहलू बहुत शानदार है।
दलितों के प्रति इस व्यवस्था के जातिवादी दुराग्रह को फ़िल्म अच्छी तरह सामने लाती है। वह यह स्थापित करने में भी सफल रहती है कि अपने जीवन और सम्मान की रक्षा का अधिकार सभी को है और यह किसी कानून/संविधान का मोहताज नहीं है।
जब 2004 में यह घटना घटी थी, उसी वक़्त हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज ‘भाऊ वहाने’ ने इसका स्वागत करते हुए कहा था-‘वे जिन परिस्थितियों से गुज़र रही थी, उसमें उनके लिए अक्कू को मारने के अलावा कोई चारा नहीं था। वे पुलिस से बार-बार अपनी सुरक्षा का गुहार लगाती रहीं, लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया।’ उल्टे वह तो बल्लू चौधरी के साथ खड़ी रही।
फ़िल्म का कमजोर पहलू इसकी ‘मेकिंग’ है। इतने अच्छे और संवेदनशील विषय को फिल्माते समय फ़िल्म अक्सर ‘लाऊड’ हो जाती है। बेवजह का बैकग्राउंड संगीत कभी कभी चिढ़ ही पैदा करता है।
अमोल पालेकर और एक दो बस्ती के पात्रों को छोड़कर प्रायः सभी का अभिनय बहुत कमजोर है। वह स्क्रीन पर विकसित नहीं होता, बल्कि पहले से ‘कमिट’ किया हुआ लगता है। मानो पहले ही चौका मारने का प्रण कर लिया हो, चाहे गेंद कैसी भी आए।
‘सैराट’ फ़िल्म से प्रसिद्धि पाई ‘रिंकू राजगुरू’ के अभिनय में यह खासतौर पर दिखता है। वे इस फ़िल्म में बस्ती को ‘जगाने’ और उन्हें संगठित करने वाली ‘आशा सुर्वे’ के किरदार में हैं, जो असली चरित्र ‘उषा नारायन’ से प्रेरित है।
फ़िल्म की दूसरी दिक्कत इसका ‘सिंपल नरेशन’ है। असल घटना में बस्ती की महिलाओं ने कभी भी गुंडे-मवाली-बलात्कारी बल्ली चौधरी के खिलाफ अपना संघर्ष छोड़ा नहीं था। लेकिन थाने पुलिस कोर्ट अखबार के जातिवादी दुराग्रह के कारण उनकी बात सुनी नहीं जा रही थी। लेकिन फ़िल्म में इसे यूं दिखाया गया है, मानो बस्ती ने लड़ना तभी सीखा जब बाहर से पढ़ के आशा सुर्वे उनके बीच आई।
आशा सुर्वे या उषा नारायन का आना उस नोडल पॉइंट की तरह है जहां मात्रात्मक विकास गुणात्मक विकास में बदल जाता है। अफसोस कि फ़िल्म इस महत्वपूर्ण चीज को कैप्चर नहीं कर पाती और सरलीकरण का शिकार हो जाती है।
इन सबके बावजूद यह एक जरूरी फ़िल्म है, जो आज के दौर में कई जरूरी और असुविधाजनक सवाल उठाती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक सरोकार से जुड़ी फिल्मों के समीक्षक हैं)